गहलोतों की कुल देवी – बाणमाता

विष्व-विख्यात चित्तौड़गढ़ को कौन नहीं जानता ? जिसके आंचल में बैठकर गुहिलवंषी संतानेां ने त्याग, बलिदान एवं राष्ट्रभक्ति का पाठ केवल पढ़ा ही नहीं बल्कि रणभूमि में झूंझकर, अपने रक्त को पानी की तरह बहाकर, निज जीवन में साकार भी कर दिखाया । गुहिलवंषी देष की आजादी से प्यार करते थे, स्वाभिमान से रहना चाहते थे, शत्रु के आगे सिर झुकाने की अपेक्षा सिर मातृभूमि पर न्यौछावर करना पसन्द करते थे । जैसा इतिहास चित्तौड़गढ़ का बना है, वैसा इतिहास दुनियां के किसी भू-भाग का नहीं बना । यहां का कण-कण त्याग, साहस और बलिदान की विलक्षण गाथाओं से ओत प्रोत है। विदेशी हमलावरों की काली आंधी में आजादी का सूर्य इसी तरह जगमगाता रहा । कश्मीर यदि भारत का मुकुट है तो चित्तौड़ भारत का हृदय है जहां से आजादी का रक्त भारत की धमनियों में निरन्तर बहता रहा । एक के बाद एक राज्य जब विदेशी आक्रानताओं के सम्मुख घुटने टेक रहे थे, तब चित्तौड़ ने भारत की आजादी की मशाल थाम ली, हमलावरों के प्रचण्ड धन ओर जन-बल को चुनौती देते हुए चित्तौड़ एक चट्टान की तरह खड़ा हो गया । आक्रमणकारियों की लहर पर लहर आती रही और उस चट्टान से टकरा कर मिटती रही । दूर-दूर से लोग चित्तौड़ के दर्षन करने के लिये आते है ओर यहां की धूलि को बड़े सम्मान एवं श्रद्धा से मस्तक पर लगाते है ।

चित्तौड़गढ़ संक्षिप्त परिचयः -चारों तरफ मैदान, बीच में 500 फीट पहाड़ । पहाड़ पर 690 एकड़ भूमि में विषाल किला । अनेक कोट और परकोटों से रक्षित । सात प्रवेष द्वार हैं चित्तौड़ का दुर्ग मौर्य-राजाओं का रहा है । मौर्य राजा चित्रागंढ ने इसको बनाया । चित्रानंद अपने नाम से इसका नाम चित्रकोट रखा । चित्रकोट से नाम चित्तौड़ हो गया । 566 ईस्वी में गुहिल यहां का राजा बना । उसी के नाम से मेवाड़ का राजवंष गुहिल कहलाने लगा ।

सम्राट गुहिलः -मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के राजकुमार कुश के वंश में 61 वें राजा सुमित्र हुए । सुमित्र के वंशज कनकसेन ने सौ राष्ट्र में अपना राज्य स्थापित किया । उसकी लगभग दस पीढ़ियों बाद राज्य की बागडज्ञेर शिलादित्य के हाथ में आई । वह हूणों से संघर्श करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ । शिलादित्य के अल्पवयस्क राजकुमार को स्वामिभक्त सेवक गुप्त रूप से ईडर के भील राज्य में ले आया । भील बालकों के साथ पहाड़ों की कन्दराओं में राजकुमार बड़ा होने लगा । गुह प्रदेश में रहने के कारण उसका नाम गुहिल हो गया ।

गुहिल के पराक्रम एव उसकी योग्यताओं को देखकर ईडर के वृद्ध भील राजा ने अपना राज्य गुहिल को सौंप दिया । उसी समय से गुहिल का उत्कर्श शुरू हुआ । शासन की बागडोर हाथ में आते ही अपनी शक्ति को बढ़ाया और एक विस्तृत राज्य की स्थापना की । सम्राट हर्शवर्धन के पहले भारत में सबसे शक्तिशाली राज्य सम्राट गुहिल का ही था । जिसने ईरान तक केसरिया ध्वज फहराया था । गुहिल ने अपने राज्य की राजधानी चित्तौड़गढ़ को बनाया । गुहिल के बाद उसके वंशज गुहिलोंत कहलाये जिन्होंने विदेशी आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला किया तथा चित्तौड़गढ़ को अजेय-दुर्ग बनाया । राजवंश की परम्परा रही है कि अंग्रेज राजकुमार राजगद्दी का उत्तराधिकारी होता है तथा अनुज राजकुमारों की संताने या तो सेना में होते या आजीविका चलाने हेतु व्यापार या खेती का कार्य करते थे । इस प्रकार जिन्होंने अन्य कार्य को अपनाया वे उसी जाति-समुदाय में विलीन हो गये, जिनका पैतृक धन्धा अपनाया । अधिकतर गुहिलवंशियों ने खेती एवं बागवानी का व्यवसाय अपनाया । जो कालान्तर में कर्म के आधार पर जाति व्यवस्था के अनुसार माली समाज में विलीन हो गये । वर्तमान में सबसे अधिक गहलोत माली समाज में विद्यमान हैं ।

कुलदेवी बाण माताः- चित्तौड़गढ़ में प्रवेश करते ही बायीं तरफ अन्नपूर्णा माता का मंदिर है, उसके बिल्कुल पास में गहलोतों की कुलदेवी बाण माता का भव्य मंदिर बना हुआ है । इस मंदिर की स्थापना के सम्बन्ध में अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिले हैं लेकिन ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि गहलोत वंश के पूर्वज सम्राट गुहिल द्वारा ही 566 ईस्वी के लगभग मंदिर की स्थापना हो सकती है । जबकि वर्तमान में वहां के पुजारियों का मानना है कि गुहिलवंश में सातवीं पीढी का राजकुमार बप्पा रावल ने 722 ई. में इस कुलदेवी मंदिर की स्थापना की गई थी।

मनीष गहलोत

मनीष गहलोत

मुख्य सम्पादक, माली सैनी संदेश पत्रिका