सैनिक क्षत्रियकुलों की खांपें

सैनिक क्षत्रियों में कुल 12 खांपें मिलती हैं। वे हैं- गहलोत, कचछवाहा, पड़िहार, सोलंकी, पंवार, सांखला ( जो वास्तव में पंवार ही है ), तंवर, चौहान, देवड़ा ( जो वास्तव में चौहान ही है ), भाटी, राठौड़, दहिया। इनमें से 11 खांपों के मुखिया वि.सं. 1257 की माघ शुक्ला 7 को पुष्कर में एकत्रित हुए थे। इन 15 खांपों का विवरण इतिहासकार जगदीशसिंह गहलोत ने 25 जून 1930 को भारत के सेन्सस कमिश्नर, दिल्ली तथा सेंसस सुपरिटेण्डेण्ट, अजमेर आदि को भेजा था, जो अपने संशोधित रूप में इस प्रकार थाः-

गहलोत

गहलोत सूर्यवंश क्षयि हैं जो मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशज माने जाते है। वर्तमान में इनका प्रमुख राज्य उदयपुर है। कुश के वंशज सुमित्र तक की वंशावली पुराणों में मिलती हैं। इसी का गुहिल नामक एक वंशज वि.सं. 625 (ई. सन् 568) में मेवाड़ में राज्य करता था। यह गुहिल आनन्दपुर( बड़नगर-गुजरात ) के राजा शिलादित्य का पुत्र था। गुहिल के वंशज गुहिल या गहलोत कहलाये। इस वंश की 24 शाखाएँ बतलाई जाती हैं। कुछ लेखक गहलोतों कों ब्राह्मण बतलाते हैं। लेकिन यह सही नहीं है। कोई व्यक्त् ब्राह्मण धर्म के अनुसार आचरण करने पर ही ब्राह्मण नहीं बन जाता है। शिलालेखों में वे लोग सूर्यवंशी बतलाये गये हैं। गुहिलों की सत्ता का प्रारम्भ मेवाड़ से हुआ और इसी वंश के विभिन्न प्रतिभाशाली राजाओं ने राजस्थान में गुहिलों की शाखाओं का विस्तार किया। सातवीं सदी से लेकर पन्द्रहवीं सदी तक गुहिलों की विभिन्न शाखाओं का राजपूताना में अस्तित्व था। मेवाड़ के गुहिलों के अतिरिक्त कल्याणपुर के गुहिल, मारवाड़ के गुहिल, धोड़ के गुहिल,काठियावाड के गुहिल आदि उनमें प्रमुख थे। गहलोत क्षत्रिय राजपूताना के अलावा गुजरात, मध्यभारत और मध्यप्रदेश आदि में भी मिलते हैं। गहलोत राजवंश सर्वाधिक गौरवपूर्ण रहा है। मेवाड़ के महाराणाओं ने अपनी मातृभूमि की रक्षा तथा स्वतंत्रता के लिए अपूर्व कोटि की सेवा व त्याग किया था। इसी कारण अन्य राजवंश इनको बड़ी श्रद्धा से स्मरण करते आये हैं। मध्यकाल में यहाँ के महाराणा कुम्भा ने अपना राज्य काफी बढ़ाया और यहाँ से अनेक गहलोतवंशी क्षत्रिय काफी क्षेत्रों में जाकर बस गये। गहलोतों के नख हैं – कुचेरिया व पीपाड़ा।

प्रतिहार (परिहार)

मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र के भाई लक्ष्मण अपने भाई के प्रतिहार (ए.डी.सी.) के रूप में काम करते थे; अतः उनके वंशज प्रतिहार कहलाये। इनके वंशजों का आधिपत्य मण्डोर ( जोधपुर ) पर सातवीं शताब्दी के आरम्भ में था। मण्डोर के समीप ही जोजरी नदी बहती थी जिसे अरब यात्री जुर्ज नदी कहते थे। अतः इस राज्य का नाम जुर्जर पड़ा जो कालान्तर में गुर्जर देश कहलाने लगा और ये प्रतिहारवंशी ‘गुर्जर प्रतिहार’ कहलाने लगे। इन प्रतिहारों के सम्बन्धियों ने भीनमाल (जालोर), उज्जैन और कन्नौज तक अपना राज्य फैलाया था। इनकी एक शाखा ने भृगुकच्छ (भड़ौच-गुजराज) में भी अपना राज्य स्थापित किया। माडवाड़ में प्रतिहारों का राज्य बारहवीं सदी के मध्य में रहा। बाद में वहाँ चैहानों का वर्चस्व हो गया और वे इस क्षेत्र में सामन्त के रूप में रहने लगे। मण्डोर में अपने शक्तिहीन समझकर प्रतिहारों की इन्दा शाखा में मण्डोर का दुर्ग राठौड़ चूण्डा को दहेज में दे दिया अतः 1395 से मण्डोर पर राठौड़ों का राज्य हो गया। प्रतिहारों की एक शाखा ने भीनमाल पर अधिकार कर रखा था। उस शाखा का संस्थापक नागभट था जिसने 739 मेंचावड़ों को हराकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। उसने अपने को ‘राम का प्रतिहार’ बतलाया है। बाद में उसने आबू, जालोर आदि पर भी कब्जा कर लिया। नागभट क उत्तराधिकारीयों ने कन्नौज व राजपूताना के अलावा मध्यप्रदेश व मध्यभारत पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अरब यात्री सुलेमान ने ई. सन् 851 में लिखा है कि उसका शासनप्रबंध बहुत अच्छा था लेकिन वह इस्लाम का घोर शत्रु था। उसने अरब के मुसलमानों का पश्चिमी भारत में आने से निरंतर रोका। सगरताल अभिलेख में लिखा है कि उसने अपनी सैनिक शक्ति से दैत्यों ( म्लेच्छो ) का नष्ट कर दिया। वह ‘महाराजाधिराज परमेश्वर भोजदेव’ कहा जाता था। प्रतिहारों का राज्य कन्नौज पर ई. सन् 1020 तक रहा जबकि महमूद गजनवी ने कन्नौद पर आक्रमण कर उनकी सत्ता समाप्त कर दी। उनका स्थान राष्ट्रकुटों( राठौड़ों ) ने ई. सन् 1093 में लिया।

प्रतिहारों का भारतीय इतिहार में महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने लगभग 100 वर्षों तक उत्तर भारत पर एकछत्र शासन किया। उन्होंने भारत में एक विशाल साम्राज्य ही स्थापित नहीं किया वरन् उसकी रक्षा भी की। उन्होंने ही उस समय भारत में मुसलमानों के प्रवेश को रोका था। प्रतिहारों के मुख्य दो नख हैं जालोरी (सुंदेशा) और मंडोवरा।