दो परिवारः तीन परिचय

जोधुपर नगर से छः मीत उत्तर की ओर मारवाड़ की प्राचीन राजधानी मंडोर स्थित है। इसका प्राचीन नाम मांडव्य ऋषि के नाम पर मांडव्यपुर था। ऋषि का आश्रम मंडलनाथ के नाम से अब भी विद्यमान है। एक जनुश्रुति के आधार पर मंदोदरी के नाम पर इसका मंडोवर होना कहते है जिसके प्रमाणस्वरूप वहाँ एक स्थान का ‘रावण की चंवरी’ भी बतलाते हैं लेकिन इसमें कोई सम्यता नहीं है। किसी समय यहां एक तक्षक शैली पर निर्मित किला था जो भूकम्प के कारण धराशायी हो गया था। गुप्त साम्राज्य के समय यहाँ नागवंशी राजा राज्य करते थे जिसके प्रमाण नागकुण्ड, नागाद्री नदी तथा नागरपंचमी का मेला है। इसके पश्चात् परमारवंश के राजाओं का शासन यहाँ रहा। परमारों के पश्चात् परिहारवंश का यहाँ अधिकार हो गया। परिहारवंश के नार्गाजुन व नाहर राव अति प्रसिद्ध हुए। नाहर राव की वीरता का विवरण ‘पृथ्वीराजरासो’ में मिलता है। नाहर राव स्मृतिमन्दिर का एक भाग आज भी विद्यमान है। पुष्करराज का वाराह मन्दिर नाहर राव ने बनवाया था। इसके पश्चात् राघव देव, गानिव, देपाल मेहा, खाखूजी, चांडरिक व सूरसिंह नाम के शासक हुए। शूरसिंह ने ‘बालसमुद्र’ नाम का तालाब बनवाया। यह तालाब आज भी जोधपुर का एक आकर्षण केन्द्र बना हुआ है। उसका पुत्र इंदा व राणा रूपड़ा था। राणा रूपड़ा से गुलाम वंश के शासकों ने मंडोर छीन लिया। तब से परिहार बालेसर में जाकर बस गये।

राठौड़ वंश का वृक्ष तेरहवीं सदी में कन्नौज से आकर मरूभूमि में पनपने लग गया। मंडोर से 9 कोस की दूरी पर स्थित गांव सालोड़ी की देख-रेख राव चूंडाजी अपने पिता के बड़े भाई राव मलिनाथ की ओर से करते थे। इंदा पडिहारों ने राव चूंडा से सहायता मांगी। उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह चूंडा से कर दिया। सन् 1395 ई. में राव चूंडा ने इंदा पडिहारों की सहायता से मंडोर पर अधिकार कर लिया। इंदा पडिहारों से संधि करवाने तथा मंडोर पर अधिकार करवाने में राव चूडाजी की हेमा गहलोत ने सहायता की थी। हेमा गहलोत इंदा पडिहारों के प्रधान (मुख्यमंत्री) थे। ऐसा मालूम होता है कि माली का पेशा ग्रहण करने के पश्चात् कुछ गहलोत स्वालख क्षेत्र (वर्तमान नागौर जिला) से मंडोर में आकर बस गये थे। आज भी ये लोग अपने को कुचेरिया गहलोत कहते हैं।

एक जनश्रुति इनके मंडोर आगमन पर और भी सुनी जाती है। राव रिड़मल के सन् 1438 ई. में मेवाड़ मे मारे जान के पश्चात् चूण्डा ने बालक राणा मुकुल की ओर से मंडोर पर आधिपत्य कर लिया। जब कराव जोधा ने सन् 1453 ई. में सिसोदियों से पुनः मंडोर छीना तो उस समय कुछ सिसोदिया गहलोत यहीं बस गये। अहाड़ा हिंगोला युद्ध में मंडोर के एक सैनी क्षत्रिय गहलोत द्वारा मारा गया था। जिसकी छतरी बालसमंद तालाब की पाल के दक्षिण में स्थित पहाड़ी पर बनी हुई थी। इन जनश्रुति के मानने में एक बाधा है। राठौड़ो ने मेवाड़ के गहलोतों को जा उस समय उनके घोर शत्रु थे, कभी भी यहाँ बसाना स्वीकार नहीं किया होगा। कोई भी शासक अपनी राजधानी में ही शत्रुओं को जागीर देकर नहीं बसा सकता। जागीर किसी कार्य के करने पर पुरस्कार स्वरूप दी जाती है। ऐसी दशा में यह जनश्रुति निराधार की प्रतीत होती है।

सन् 1531 ई. में मारवाड़ के सिंहासन पर राव मालदेव बैठे। यह बड़े ही महत्वाकांक्षी थे। जब हुमायूँ का पीछा करते-करते शेरशाह मारवाड़ पहुँचा तब उन्होंने हुमायु को शरण नहीं दी परन्तु शेरशाह से इनका घमासान युद्ध हुआ। कूटनीति द्वारा शेरशाह ने इनहें परास्त कर दिया। राव मालदेव छप्पन के पहाड़ों में चले गये। जोधपुर में पठानों की पताका फहराने लगी। कुछ वर्ष पश्चात् शेरशाह की मृत्यु का समाचार सुनते ही मंडोर के गहलोत क्षत्रियों ने पुनः राठौड़ों की पताका वहाँ फहरा दी।

महाराजा सूरसिंह ने सूरजकुण्ड और सूरसागर बनाया। कल्लाजी गहलेात ने उनकी आज्ञानुसार सूरसागर में उद्यान लगाया तथा गवां बागां नाम का ग्राम भी बसाया। महाराजा गजसिंह (सन् 1620 से 1638ई.) के साथ गोपीलाल गहलोत भूसावल गया। वहाँ गूंदा के वृक्ष लाकर उसने उन्हें मंछोर में प्रत्यारोपित किये। उसने गोपी का बेरा नाम से मंडोर में गांव बसाया। हेमा गहलोत ने पांचवी पीढी पर चुतरा गहलोत (गोपीलाल का पुत्र) हुए थे। मंडोर के प्रसिद्ध अनारों को लगाने व केतकी के फुल काबुल से लाने का श्रेय उन्हें ही प्राप्त है।

चुतरा गहलोत के बारे में दो जनश्रुतियां प्रचलित हैं। पहली जनश्रुति इस प्रकार है – महाराजा जसवन्तसिंह सन् 1638 में गद्दी पर बैठे तब से सन् 1665 ई. तक वे दक्षिण प्रवास में रहे। छत्रपति शिवाजी से उनका गाढ़ा परिचय हो गया। इसकी जानकारी होने पर मुगल सम्राट ओरंगजेब ने उन्हें गुजरात भेज दिया परन्तु वहाँ से वे असंतुष्ट होकर सन् 1670 ई. में जोधपुर चले आये। औरंगजेब सदैव हिन्दू शासकों से भयभीत रहता था इसलिए वह महाराजा को कहीं और भेजना चाहता था। इसका अवसर भी आ गया। काबुल में पठाना सें ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का दबाने के लिए महाराजा जसवन्तसिंह को भेजा गया। उनके पीछे राजकुमार पृथ्वीराजसिंह शासन कार्य सम्भालने लगे। औरंगजेब की ललचाई दृष्टि मारवाड़ की ओर थी। अपने पृथ्वीराज सिंह को शाही दरबार में बुलवाया तथा शाही पेाशाक उन्हें पुरस्कार में दी। उस विषभरी पोशाक के पहनने से राजकुमार पृथ्वीराज सिंह तड़प-तड़प कर मर गया। मारवाड़ में शाही थाना बैठा दिया गया। जोधपुर की जनता भयग्रस्त हो गई महाराजा को इसकी सूचना किस प्रकार भेजी जाय, इसका कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। उस समय चुतरा गहलोतन नें काबुल जाने का बीड़ा उठाया। वे इससे पहले भी काबुल जा चुके थे।

शाही मार्गों पर जगह-जगह मुगलों के थाने थे। ऐसी दशा में प्रत्यक्ष जाना संभव नहीं था। इसलिए चुतरा गहलोत ने एक भेड़ा मारा और उसकी अन्त्येष्टि कर दी। उनके परिवार वालों ने शोक के वस्त्र धारण कर लिए। जोधपुर में प्रचलित हो गया कि चुतरा गहलोत का स्वर्गवास हो गया है। उधर चुतरा गहलोत सर मुडा कर ओर गेरूए वस्त्र धारण कर काबुल को चुपचाप रवाना हो गए। चुतरा गहलोत के काबुल पहुचने पर महाराजा जसवन्तसिंह को औरंगजेब के नापाक विचारों का ज्ञान हुआ। महाराजा जसवन्तसिंह ने बादशाह को चेतावनी दी। साथ ही साथ बादशाह कहीं चुतरा गहलोत के परिवार वालों पर अत्याचार न करें, इसका ध्यान रखत हुए उन्होंने जोधपुर सूचना भेजी कि चुतरा गहलोत देवत्य को प्राप्त हुए है तथा उन्होंने मुझे दर्शन दिया हैं। चुतरा गहलोत पुनः जोधपुर लोटकर न आ सके। विक्रम सं. 1730 श्रावण सुदि 4 ( सन् 1673 ई. ) को 43 वर्ष की आयु में पेशावर के समीप खैबर घाटे के नीचे जमरोद के युद्ध में उन्होंने प्राण गवाये। महाराजा जसवंतसिंह को इससे बड़ा दुख हुआ और उन्होंने काबुल से लेकर मंडोर तक उनकी स्मृति में थान बनवाये। मंडोर में जोधपुर मंडोर सड़क पर 4 मील के पास चुतरा गहलोत कके प्रतीक भेड़े का जहाँ दाहसंस्कार किया गया था, वहाँ पर जो थान बनाया गया, वह आज भी ‘भोमियाजी’‘ के थान नाम से पूजा जाता है। क्योंकि चुतरा गहलेात पुनः लोटकर नहीं आये थे तथा मारवाड़ में किसी वीर के मरने पर उनको ‘भोमिया’ कहकर पूजने की प्रथा हैं।

दूसरी जनश्रुति के अनुसार चुतरा गहलोत ने मंडोर से के तकी के फूल ले जाकर महाराज को देने का वचन दिया था। परन्तु चुतरा गहलोत का अकस्मात् देहांत हो गया। मृत्यु के पहले उन्होंने अपनी पत्नी को एक नये घड़े में फूल रखकर बाहर मैदान में रखने को कहा था उनकी पत्नी ने ऐसा ही किया। चुतरा गहलोत का भूत वह घड़ा काबुल ले गया। मरने के बाद भी ऐसी स्वामीभक्ति देखकर जोधपुर में नये बाग लगाने पर चुतरा गहलोत के थान को स्थापित करने की प्रथा प्रचलित का। मंडोर उद्याान में तैंतीस करोड़ देवताओं के कक्ष के सामने खड़ में उनका थान आज भी विद्यमान है। इन दोनों जनश्रुतियों से यह भलीभाति ज्ञात होता है कि चुतरा गहलोत काबुल गये थे तथा उनकी मृत्यु जमरोद में हुई थी।

महाराज जसवंतसिंह के समय ही नागोर के ताउसर गाँव से मनोहर कछवाहा अपने पुत्र जयमल के साथ मंडोर की पंचायत में आये थे। यहाँ उन्होंने अपने पुत्र का विवाह फूल बाग के हरखावत जयसिंह गहलोत की पुत्री के साथ कर दिया। जयसिंह ने दहेज में कोइटा का बेरा दिया जो दामाद के नागौर से यहाँ आकर रहने के कारण नागोरियों का बेरा कहलाया। अब यह ‘कछवाहा नगर’ कहलाता है।

महाराजा जसवंतसिंह भी पुनः काबुल से लोटकर जोधपुर न आ सके। वि.सं. 1735 की पौष वदि 10 के जमरोद में उनका स्वर्गवास हो गया। पृथ्वीराजसिंह की मृत्यु के पश्चात् महाराजा के और कोई संतान नहीं हुई थी। इस समाचार को सुनकर औरंगजेब की सुप्त कामना फिर जाग उठी। उसने तुरन्त महाराजा जसवंतसिंह की काबुल से आ रही दो गर्भवती रानियों को दिल्ली लाने का षड्यंत्र रचा। लाहौर में रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया, परन्तु एक का तो वहीं देहांत हो गया। जीवित राजकुमार अजीतसिंह अन्य राठौड़ों के साथ दिल्ली लाये गये। उनके महल के चारो ओर पहरा लगा दिया गया। ऐसी दशा में राठौड़ दुर्गादास ने एक उपाय सोचा। उस उपाय के अनुसार मंडोर के भलावत मनोहर गोपाल गहलोत की पत्नी गोरां व मुकंददास खींची की सहायता से राजकुमार व राजमाता दोनों वहाँ से निकल कर भागने में सफल हुए। मारवाड़ के राजकीय गीत में भी वीरांगना का उल्लेख मिलता है।

मुसलमान इतिहासज्ञ मुहम्मद हाशिम खफीखाँ ने भी अपने फारसी ग्रन्थ ‘मुन्तखबुललुबाब’ में उपर्युक्त घटना का वर्णन किया है। खफीखाँ के अनुसार बादशाह को इस घटना के दूसरे दिन संदेह हुआ। अपने कोतवाल फौलादखां को राठौड़ो को पकड़ कर लाने के लिए भेजा। घमासान युद्ध के अंत में फौलादखां ने गोरांधाय के बालक को कुछ दासियों सहित पकड़ा। वह प्रसन्न था कि सिंह को नहीं पकड़ पाया तो क्या सिंह के बच्चे को तो पकड़ ही लिया। उस बालक का लालन-पालन जेबुन्निसा बेगम ने किया। बादशाह को तो अजीतसिंह की वास्तविकता का पता, वि.सं. 1753 (सन् 1696 ई.) में चला जब महाराजा का विवाह उदयपुर के राजकुल में हुआ था।

गोरां धाय के पति को इस राजभक्ति के कारण महाराजा अजीतसिंह ने ‘मेहतर’ उपाधि से सम्मानित किया जैसा कि बड़े कर्मचारियों के लिए उपाधि रूप में काम लाया जाता था। अब भी बलुचिस्तान की मुस्लिम रियासत चित्राल के शासक ‘हिज फाइनेस मेहतर ऑफ चित्राल’ कहलाते हैं। औरंगजेब के मारवाड़ को मुगल साम्राज्य में पूर्णयता आत्मसात् करने के दुःस्वप्न को भंग करने में योग देने वाली गोरां धाय 48 वर्ष की आयु में अपने पति के शव के साथ सती हो गई। जोधपुर की कचहरी रोड़ पर आज भी उस वीरांगना का स्मृति-स्मारक खड़ा है। राजस्थान के इतिहास की इस दूसरी पन्ना धाय के स्मारक में एक शिलालेख भी लगा हुआ है।

27 जुलाई, 1947 में जोधपुर राजपत्र, राजतिलक अंक में राज्य का राष्ट्रीय धूंसा पुनः छपा। उस समय अम्बादास राय माथुर ने गोरांधाय के लिए प्रकाशित फुटनोट पर विरोध प्रकट किया। उनकी राय में गोरांधाय दिल्ली नहीं गई थी। क्योंकि उसका वर्णन ‘ओरंगेबनामा’ खफीखां या जोधपुर की तवारीखों में कही नहीं है। दूसरी अन्य स्त्रियां या तो फौलाद खां द्वारा पकड़ी गई या मारी गई, इसलिए गोरां धाय वहाँ मोजूद होती तो फिर वह जोधपुर जीवित कैसे पहुची ? जोधपुर के अन्य इतिहासज्ञ विश्वेश्वर नाथ रे ने भी इसका समर्थन किया है। लेकिन स्वयं रे ने सन् 1933 ई. में जोधपुर के राष्ट्रीय गीत का सम्पादन किया था जिसमें गोरां धाय का नाम है। यह धूंसा महाराजा अभयसिंह के समय रचा गया था। यही, नहीं पं. गोकुल प्रसाद पाठक पं. हीरीलाल शुक्ल श्री जगदीशसिंह गहलोत आदि ने भी अपनी रचनाओं में गोरां धाय का उल्लेख किया है, परन्तु उनके उल्लेखों को किसी ने भी चुनौती नहीं दी। उल्टे राज्य सरकार ने श्री जगदीशसिंह गहलोत को उनकी पुस्तक पर पांच सौ रूपये का पुरस्कार दिया। स्वयं रे ने भी उन्हें बधाई दी। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवी प्रसाद व प्रसिद्ध समाजसुधारक चांदकरण शारदा ने गोरां धाय का अपने लेखों में सचित्र उल्लेख किया है। रे ने अपनी पुस्तक में केवल ‘धाय’ शब्द का उल्लेख किया है- लेकिन वह कौन सी धाय थी ? अखिल भारतवर्षीय क्षत्रिय राजपूत महासभा ने भी अपने मुख्य पत्र में धूंसा गीत को प्रकाशित किया है। इस गीत को कविराज मे हरदान ने महामहोपाध्याय कविराज मुरारदान के पुराने अभिलेखों के आधार पर सम्पादित किया। उसकमे फुटनोट में दिया गया गोरां धाय का वर्णन ही जोधपुर राजपत्र राजतिलक अंक में दिया गया था।

ऐसी दशा में हमें तो चांदकरण शारदा का कथन ही सही प्रतीत होता है कि इतिहासज्ञों द्वारा छोटे आदमियों की अवहेलना कर दी जाती हैं या अक्सर उनका नाम ही नहीं दिया जाता। उपरोक्त विवरण से यही बिल्कुल स्पष्ट है कि गोरां धाय महाराजा जसवंतसिंह की रानियों के साथ ही काबुल गई थी तथा दिल्ली से बालक महाराजा की देखभाल के लिय वह भी मुगल सैन्य से युद्ध होने से पहले ही निकल गई थी।

सन् 1742 में महाराजा अजीतसिंह के पश्चात् अभयसिंह जोधपुर के सिंहासन पर बैठे। उनकी सेवा में अक्खा अक्षय गहलोत था। महाराजा अभयसिंह के साथ वह गुजरात गया था। वहाँ से वह केतकी, चम्पा और रायणी के वृक्ष लाया और मंडोर में उनका रोपण किया। इसके बाद उत्तरी भारत पर मराठों की लूटपाट का प्रभाव पड़ने लग गया जिससे मंडोर के इस परिवार का संबंध भी शनैः शनैः राजपरिवार से टूट गया। महाराजा जसवंतसिंह द्वितीय व सर प्रताप का बाल्यकाल नागौरी बेरा आदि के आसपास अवश्य गुजरा था।

गहलोतों ने कई गांव बसाये। पानराउ ने पूंदला व जिनराव ने चैनपुरा बसाया।

बीकानेर

सन् 1459 में जोधपुर की स्थापना हुई। प्राचीन राजधानी मंडोर का वैभव जोधपुर को प्राप्त हुआ। मंडोर के जयसिंह गहलोत का पुत्र चाहायड़ राव जोधा के पुत्र राव बीका का धाय भाई था। एक रात चाहायड़ की मां को स्वप्न में गौर वर्ण भैरव ने कहा कि राव बीका का राज्य जंगल प्रदेश में होगा। वे प्रदेश बिना शासक के पड़ा है तथा उत्तम भी है। प्रातः होने पर मां ने पुत्र को अपने स्वप्न का विवरण कह सुनाया। राजदरबार में आने पर चाहायड़ ने राव बीका के सम्मुख अपनी मां के स्वप्न का वृतान्त प्रकट किया। राव अपने चाचा कांधल से विचार-विमर्श करने लगे। उसी समय दरबार में राव जोधा का आगमन हुआ। उन्होंने दोनों को विचार-विमर्श करते देखकर हंसते हुए कहा कि आज काका और भतीजा कौन से मुल्क को फतह करने की सलाह कर रहे हैं ? कांधल ने प्रत्युत्तर में कहा कि आपकी कृपादृष्टि हो तो एक मुल्क लेना कौनसी बड़ी बात है ? राव जोधा ने उन्हें प्रत्येक प्रकार की सहायता देने का आश्वासन दिया। राव बीका ने 1100 घुड़सवारों व 500 पदातियों, कांधल, बीदा, नापा, सांखला, बेला पडिहार व चाहायड़ आदि के साथ सन् 1465 में जोधपुर से प्रस्थान किया। चाहायड़ गहलोत अपने साथ मंडोर से गोर वर्ण भैरव की मूर्ति लाये और उसकी स्थापना बीकानेर से 15 मील दूर कोडमदेसर में की गई। आज तक उसकी पूजा चाहायड़ गहलोत की संतान करती आ रही है।

15 मई सन् 1489 को बीकानेर की स्थापना हुई। बीकानेर की स्थापना के पश्चात् राव बीका ने चाहायड़ को सेना का एक अधिकारी नियुक्त किया तथा बीकानेर के पास उसे चार कोस की भूमि इनाम में दे दी। साथ ही साथ उसका ताम्रपत्र भी दिया।

चाहायड़ का पुत्र गोगल हुआ जो महाराजा लूणकरण के विश्वासपात्रों में था। महाराजा ने इसे भी भूमि दी जो बीकानेर के गोगा दरवाजे के बाहर स्थित है तथा गोगल सर के नाम से प्रसिद्ध है। इसका पट्टा सं. 1598 में हुआ। इस नगरद्वार का नाम भी उसी पर के नाम पर रखा गया है।

गोगल गहलोत के भी कई पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम केशव था इसकी संतान केसाणी कहलाती है। इसे राव कल्याणसिंह ने आज्ञा दी की जोधपुर वाले हमें सदैव तंग करते रहते हैं इसलिए तुम्हारी जाति के लोग नागौर व जोधपुर की तरह शहर से 2-3 मील की दूरी पर नगर की सुरक्षा हेतु रहें। केशव ने आज्ञा का पालन किया। उसने बीकानेर के पास माली क्षत्रिय जाति के लोगों को लाकर बसा दिया जो ‘बारहवास’ के नाम से जाने जाते हैं।

केशव के बड़े पुत्र का नाम जसा था। तत्कालीन बीकानेर नरेश राव रायसिंह सन् 1585 में दक्षिण के सूबेदार बना कर बुरहानपुर भेजे गए। उस समय उन्होंने जसा गहलोत व दीवान करमचन्द बछावत को आज्ञा दी कि शुभ मुहूर्त में बीकानेर के दुर्ग की नींव रखकर जल्दी ही गढ़ तैयार करवाया जाये। संवत् 1650 में गढ़ बनकर तैयार हो गया। सवंत् 1652 में दिवान करमचन्द तथा कुछ लोगों ने राव रायसिंह को गद्दी से उतार कर राजकुमार दलपतसिंह को गद्दी पर बैठाने का षड्यंत्र रचा। जसा ने अपने भाई को बुरहानपुर भेजकर राव रायसिंह को इसकी सूचना दी। राव रायसिंह तुरन्त बीकानेर आ पहुंचे। दीवार करमचन्द डर के मारे दिल्ली भाग गया। जसा व उनके भाई को राव रायसिंह ने पुरस्कारादि से सम्मानित किया। सं. 1668 में बीकानेर के सिंहासन पर राव दलपतसिंह बैठें। कुछ दिन पश्चात् अजमेर के सूबेदार ने रियासत के कुछ उमरावों के बहकाने में आकर राव दलपतसिंह को अजमेर में नजरबन्द कर लिया। जसा भी उस समय उनके साथ थे। चार मास कैद की यातनाएं भोगने के बाद जास गहलोत के हरसोलाव के जागीरदार ठा. हरीसिंह चम्पावत के ससुराल जाते हुए अजमेर में आने की सूचना मिली। राव दलपतसिंह की आज्ञा ले उन्होंने ठा. हरीसिंह को बीकानेर नरेश की कैद का समाचार भिजवाया। ठाकुर हरीसिंह ने तुरन्तु अपने चार सौ घुड़सवारों की सहायता से राव दलपतसिंह आदि को छुड़ा लिया। इसकी सूचना मिलते ही अजमेर का सूबेदार चार हजार शाही फौज के साथ आ धमका। घमासान युद्ध हुआ जिसमें राव दलपतसिंह व ठा. हरीसिंह सहित जसा गहलोत भी मारा गया।

जसा के लड़के का नाम धांधु था जिसे राव सूरसिंह ने बीकानेर नरेश में सूरजपोल का रक्षक नियुक्त किया था। धांधु के बड़े पुत्र का नाम कुंभा था जो राव कर्णसिंह की सेवा में था। कुंभा का एक भाई गढ़ के प्रवेशद्वार का रक्षक था। कुंभा का दूसर पुत्र दुर्गा महाराज अनूपसिंह का धाय भाई था।

दुर्गा गहलोत का तीसरा पुत्र दौलतसिंह महाराजा सुजानसिंह सन् 1700-1725ई. का धाय भाई था। उन दिनों जोधपुर में महाराजा अभयसिंह शासन करते थे। नागौर उनके भाई बख्तसिंह के अधीन था। महाराजा बख्तसिंह बीकानेर पर भी अधिकार करना चाहते थे। किलेदार दौलतसिंह सांखला और उदयसिंह भाटी कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ महाराजा बख्तसिंह की ओर मिल गये व षड्यंत्र में रत हुए एक दिन महाराजकुमार उदयसर गये हुए थे जिससे किला असुरक्षित हो गया। महाराजा बख्तसिंह को सूचना भेजी गई। उन्हीं दिनो उदयसिंह भाटी और जैतसिंह पडिहार भी उदयसर चले गए। वहां उदयसिंह ने ज्यादा शराब पी लेने से नशे की झोंक में महाराजा बख्तसिंह के षड्यंत्र का समस्त हाल कह दिया। जैतसी पडिहार ने तुरंत बीकानेर आकर दौलतसिंह गहलोत को समाचार दिया कि आज रात नागौर वाले किले पर अधिकार करने वाले हैं दौलतसिंह ने तुरंत महाराजा सुजानसिंह को जगाकर आने वाले संकट की सूचना दी। स्वयं महाराजा सुजानसिंह के निरीक्षण करने पर किले के द्वार खुले पाये गये। उसी समय किले के द्वार बंद करवा कर तोप छोड़ी गई। तोप की ध्वनि सुनकर महाराजा बख्तसिंह वापस लोट गए। किले के दस सांखला पहरेदार मारे गए। दौलतसिंह गहलोत को किलेदार बनाया और जैतसी को रियासत का प्रबन्ध सोंपा गया। सन् 1725ई में महाराजा जोरावरसिंह गद्दीपर बैठे। उन्होंने दौलतसिंह को राज्य का अन्य कार्य सोंपा और किलेदार किसी दूसरे व्यक्ति को बनाया परन्तु सूरजपोल की जमींदारी इनके ही पास रहीं।

दौलतसिंह का पुत्र मोटू महाराजा गजसिंह के राजकुमार छतरसिंह का धाय भाई था। सूरजपोल की परम्परागत किलेदारी कायम रहीं। मोटू के दो पुत्र थे। बीजराज और सांवतदास उनमें एक अच्छे महात्मा हुए। बींजराज का पुत्र भतमाल महाराजा दलेजसिंह के राजकुमार संगतसिंह का धाय भाई था। भतमाल का पुत्र छोगा महाराजा संगतसिंह के राजकुमार लालसिंह का धाय भाई हुआ।

छोगा गहलोत के दो पुत्र थे मूलसिंह व उदयसिंह जो महाराज डूंगरसिंह के धाय भाई थे। मूलसिंह का जन्म सन् 1854 ई. में व उदयसिंह का जन्म आषाढ़ सुदि 7 वि.सं. 1921 सन् 1864 ई. में हुआ। तत्कालीन महाराजा सरदार सिंह के कोई पुत्र न था। ऐसी दशा में गद्दीके दावेदार कई उमराव थे। परन्तु महाराजा सरदारसिंह डूंगरसिंह को चाहते थे। इसलिए कई बार डूंगरसिंह को विष देने के प्रयास किए गए। डूंगरसिंह की आयु जब तीन वर्ष की ही थी, तभी उनकी मां का देहान्त हो गया था। इसलिए सुरक्षा का दायित्व धाय श्रृगांरी पर था। उदयसिंह की मां के प्रयत्नों से विष देने के कई प्रयत्न निष्फल हुए। स्वयं महाराजा सरदारसिंह ने डूंगरसिंह के भोजन की व्यवस्था धाय की देखरेख में अलग से कर दी। सत्रह वर्ष की आयु होने पर डूंगरसिंह का विवाह मनोहरपुर जयपुर में सन् 1872 वेशाख माह में हुआ उस समय महाराजा सरदारसिंह का स्वर्गवास हो गया था। गद्दी के कई दावेदार उत्पन्न हो गये परन्तु उदयपुर के महाराणा शभूंसिंह की सहायता से डूंगरसिंह को गद्दी मिल गई।

महाराजा डूंगरसिंह के सिंहासन पर बैठने के पश्चात् भी उनके शत्रुओं ने उनके जूतों में विष रख दिया परन्तु जूतों के रक्षक-जोडेवदार की चैकसी के कारण शत्रुओं का यह प्रयास भी निष्फल हुआ। सन् 1872 में उदयसिंह के चाचा जसराज को गढ़ की किलेदारी और नापासर की जागीर, जो हमेशा किलेदार को मिलती है, दी गई। महाराजा की व्यक्तिगत सेवा चाचा जसराज भाई मूलसिंह सहित उदयसिंह करते रहे। सूरजपोल की जमींदारी कायम रही। कुछ दिन बाद रथखाना भी मूलसिंह के नाम कर दिया गया।

महाराजा डूंगरसिंह सन् 1875 ई. में हरिद्वार तीर्थ पर गए। यात्रा की वापसी में ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के सम्मान में आयोजित दरबार में भाग लेने महाराजा डूंगरसिंह दिल्ली रूके। अपने डेरे पर प्रिंस को महाराजा ने निमंत्रण दिया। अन्य उमराव दांये बिठाए गये परन्तु उन्होंने जसराज व मूलसिंह को सामने कुर्सी देकर सम्मानित किया।

सन् 1877ई. के फरवरी में महाराजा डूंगरसिंह कच्छ भुज की राजकुमारी के संग विवाह करने गए। साथ में जसराज, मूलसिंह व उदयसिंह भी थे। इस विवाह के उपलक्ष्य में जसराज व मूलसिंह को पैर में सोनें का कड़ा व जागीरें और उदयसिंह को पैर में सोने की कड़ी और ‘लंगर’ प्रदान किए गए।

सन् 1879ई. में उदयसिंह का विवाह परगना रैती कोट के कोतवाल व नायब तहसीलदार चैधरी तंवर की पोती से हुआ। बारात में हाथी, घोडे, रथ, पैदल, पालकी, राजकी बैंड, अमीर उमराव आदि थे। ‘बाने बैठाने’ की रस्म के दिन समस्त रानिया भी वहा उपस्थित थी। धायभाई उदयसिंह ने हाथी पर बैठकर तोरण बांधा। बरात की वापसी पर श्रावण वदि स्वयं महाराजा डूंगरसिंह धाय भाई उदयसिंह की हवेली पर भोज में आए और उन्होंने उसे मोतियों का सिरोपाव-खिलअत व जागीर आदि भेंट मेंदी। उसी दिन से धाय मूलसिंह व उदयसिंह को दाहिने हाथ की पंक्ति में दरबार में कुर्सी दी गई।

महाराज सर गंगासिंह के धाय भाई अमोलखसिंह तंवर थे जिनसे यह पद सन् 1898 ई. में ले किया गया तथा ठा. सालगराम पंवार को धाय भाई बना दिया गया। सालगराम पंवार धाय भाई उदयसिंह गहलोत की बुआ के पुत्र थे तथा उनके साढू भी लगते थे। सैनिक क्षत्रिय जाति का इतिहास लिखने की प्रेरणा सर्वप्रथम 13 मार्च 1905 ई. में एक विज्ञापन ‘जातीय प्रश्न’ छपवा कर धाय भाई उदयसिंह ने दी थी।

धाय भाई उदयसिंह की मृत्यु 1924-25 ई. के करीब हुई। उनके पुत्र शिवबख्स का विवाह उदयपुर के धाय भाई जगन्नाथसिंह तंवर की पुत्री से हुआ था। शिवबख्स व मूलसिंह गहलोत के कोई पुत्र नहीं हुआ।

उदयपुर

मुसलमान बादश्शाहों के समय नागौर में बसने वाले माली जाति के बन्धुओं में तंवर घराना भी था। इस परिवार के दज्जूसिंह तंवर और नागौर में रहा करते थे। बीकानेर के महाराजा रायसिंह के समय उनका बीकानेर में आना जाना था। बाद में वह बीकानेर के पोपखानें में काम करने लगे।

छज्जूसिंह के पुत्र हरीसिंह जोधपुर के महाराजा जसवतसिंह प्रथम के राज्यकाल में उनके तोपखाने में नौकर थे। संवत् 1715में ओरंगजेब के साथ हुए उज्जैन के युद्ध में वे मारे गए।

हरीसिंह के पुत्र डूंगरसिंह ने इसी पद पर रहते हुए बीकानेर के महाराजा कर्णसिंह व नागौर के अमरसिंह राठौड़ के बीच उत्पन्न पारस्परिक कलह में कर्णसिंह का साथ दिया। औरंगजेब ने अपने भाइयों के साथ संघर्ष होने पर डूंगरसिंह महाराजा कर्णसिंह के साथ गए। महाराजा अनूपसिंह के साथ वे दक्षिण भी गए। वहां गोलकुण्डा के युद्ध सन् 1645 ई. में खेत रहे।

डूंगरसिंह के लड़के कलसिंह ने घोटा बरदारी के पद पर कार्य किया। कलसिंह के पुत्र गोविन्दसिंह ने संवत् 1790 में ताजसर के युद्ध में खबरनवीसी के पद पर कार्य किया।

गोविन्दसिंह के पुत्र दामोदरसिंह व पौत्र वीरसिंह थे। गजनेर की स्थापना होने पर बीकानेर के महाराजा गजसिंह ने सन् 1749ई. में वीरसिंह तंवर को वह इनाम में भूमि प्रदान की। तब से यह परिवार नागौर से आकर बीकानेर में बस गया।

वीरसिंह के पुत्र का नाम जालव ओर पौत्र का नाम प्रेमसिंह था। प्रेमसिंह डाबली के युद्ध में बीकानेर नरेश की ओर से जोहियों से लड़ते हुए मारे गए। उपर्युक्त विवरण बीकानेर की ख्यातों में मिलता है।

प्रेमसिंह के पुत्र अक्षेराज हुए। अक्षेराज के तीन पुत्र जेठमल, थानसिंह और ईश्वरसिंह हुए। जेठमल तंवर की स्त्री पदमा महाराजा लालसिंह की बहन नन्दकुंवर की धाय थी। सवंत् 1897 आसोज सुदि 9 सन् 1840 ई. को नन्दकुंवर का विवाह उदयपुर के महाराणा सरदारसिंह के भतीजे तथा बागोर के कुंवर शार्दूलसिंह के साथ हुआ। अपनी पत्नी पदमा व पुत्र बदनमल के साथ उदयपुर आ गए।

संवत् 1904 में जब राजकुमार शम्भूसिंह का जन्म हुआ तो बदनमल तंवर की पत्नी लक्ष्मी उनकी धाय हुई। महाराणा सरदारसिंह के कोई संतान नहीं थी। ऐसी दशा में परम्परानुसार सिंहासन शार्दूलसिंह को मिलना चाहिए था, परन्तु आपसी वैमनस्य के कारण ऐसा न होकर राणा सरदारसिंह के स्वर्गवास हो जाने पर शार्दूलसिंह के भाई स्वरूपसिंह महाराणा बन गए। उन्होंने लोगों के बहकावे में आकर शार्दूलसिंह को कैद कर लिया। कारागाार मेंही उनकी मृत्यु हुई। अन्त में महाराणा स्वरूपसिंह को समय का ज्ञान हुआ। उन्होंने अपने कोई संतान न होने के कारण प्रयाश्चितस्वरूप शार्दूलसिंह के पुत्र शम्भूसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। राजमहलों के षड्यंत्रों से राजकुमार को बचाने का उत्तरदायित्व धाय लक्ष्मी पर रहा। सन् 1861ई. में महाराणा स्वरूपसिंह का स्वर्गवास हो जाने पर 17 वर्ष की आयु में शम्भूसिंह सिंहासन पर बैठे।

महाराणाशम्भूसिंह ने बदनमल तंवर की सेवाओं से प्रसन्न होकर सन् 1865ई. में उनको जागीर प्रदार की। सं. 1928 कार्तिक वदि 3, 31 अक्टूबर 1891ई. को महाराणा स्वयं सपरिवार बदनमल की हवेली पर भोज में गए तथा पांच दिन तक हवेली में रहे। दिनांक 5 नवम्बर 1871ई. को महाराणा ने बदनमल को धवा ओर राव की पदवी दे अपना अंगरक्षक नियुक्त किया। उन्हें दोनों पांवों में सोना, होकार की कलंगी और अमरशाही पाग में सोने का मांजा तथा जागीर प्रदान की गई। बदनमल के पुत्र रघुलाल को भी सोना मिला। इसी वर्ष महाराणा ने बदनमल को नाव की सवारी पर चंवर लेकर खडे रहने का कार्य भी सोंपा। इससे पहले सन् 1870ई. के अक्टूबर माह में जब महाराणा शम्भूसिंह लार्ड मेयो के दरबार में अजमेर गए तो उनके साथ बदनसिंह भी गए थे।

बीकानेर सरदारसिंह का दिनांक 16 मई 1872 ई. को स्वर्गवास हो गया। बीकानेर की राजगद्दीको लेकर विवाद उठ खड़ा हुआ। तब महाराजा डूंगरसिंह को सिंहासन दिलवाने के लिए महाराजा लालसिंह ने बदनसिंह तंवर को लिखा। महाराजा डूंगरसिंह की माता उदयपुर की थी। इसलिए बदनसिंह के समाचार देने पर महाराणा शम्भूसिंह के प्रयत्नों से बीकानेर की गद्दीडूंगरसिंह को मिली। बदनसिंह के इस कार्य का उल्लेख अर्जुनसिंह के जीवनचरित्र से भी मिलता है।

सन् 1874ई. में महाराणा शम्भूसिंह का स्वर्गवास हो जाने पर महाराणा सज्जनसिंह गद्दीपर बैठे। 10-3-1877 ई. विं सं. 1933 चैत्र वदि 11 को उदयपुर मेंएक दीवानी, फौजदारी तथा अपील के विभागों पर एक कौसिंल याने ‘इजलास खास’ की स्थापना हुई। इसके सदस्यों में राव बदनमल तंवर भी थे। वि. संवत् 1947 माघ वदि 4 सन् 1890ई. को राव बदनमल का स्वर्गवास हो गया।

राव बदनमल के दो पुत्र थे- कर्नल रघुलाल और जगन्नाथसिंह। रघुलाल महाराणा शम्भूसिंह के समय चारों रिसालों तथा ‘शम्भू पलटन’ के कमाडंर नियुक्त हुए थे लेकिन महाराणा सज्जनसिंह के समय उन्हें इस पद से मुक्त कर दिया गया तथा उनकी कुछ जागीर भी जब्त कर ली गई। सन् 1877ई. में रघुलाल को महाराणा की ओर से सम्मान सूचक जी शब्द तथा बैठक बख्शी गई। उनके भाई जगन्नाथसिंह की पुत्री का विवाह बीकानेर के धाय भाई उदयसिंह गहलोत के पुत्र शिवबख्स से हुआ था।

धाय भाई रघुलाल के तीन पुत्र थे- अमरसिंह, फतहलाल, मोतीलाल। फतहलाल के पुत्र धन्नालाल है। मोतीलाल के केवल एक लड़की थी जो राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कानसिंह परिहार (जोधपुर) को ब्याही गई थी।

धाय भाई अमरसिंह का जन्म 13 जून 1881ई. को हुआ था। महाराणा फतहसिंह व महाराणा भोपालसिंह के आप ए.डी.सी. रहे। चालीस वर्ष तक आप शिकारविभाग के मुख्याधिकारी भी रहे। आप एक अति निपुण शिकारी थे। बीकानेर राज्य में बेरासरगांव व उदयपुर में वीर धोलिया गांव आपको जागीर में मिले हुए थे। आपको दोनों पांवों में सोना भी मिला हुआ था। जोधपुर के महाराजा उम्मेदसिंह जी ने भी आपको आपके शिकार प्रबंध से प्रसन्न होकर 6500 रू तथा रातानाडा (जोधपुर) में बंगला बनवाने के लिए दिनांक 19 सितम्बर1935ई. को भूमि इनाम में दी थी।

आपने माली जाति के 5वें ज्वालापुर सम्मेलन का सभापतित्व भी किया था। आपका स्वर्गवास 27 जुलाई 1947 ई. को हुआ

आपके पुत्र धाय भाई लक्ष्मणसिंह तंवर राजस्थान सरकार की सेवा में रहे। शम्भूसिंह के समय वे संवत् 1921 में उदयपुर आये और राज्य मुलाजिम हुए। उनकों कपड़ द्वारे पोशाक का कारखाना का काम और चंवर की सेवा सौंपी गई। इनका स्वर्गवास संवत् 1956 ई में हुआ।

हुक्मसिंह तंवर के पुत्र जगन्नाथसिंह मंजे हुए शिकारी थे। इनका स्वर्गवास सन् 1923 ई. में हुआ। आपके तीन पुत्र धाय भाई तुलसीनाथसिंह, रामनाथसिंह व स्व. शिवनाथसिंह हैं। धाय भाई तुलसीनाथ राजस्थान के माने हुए शिकारी हैं तथा राजस्थान में शिकार साहित्य के हिन्दी के प्रथम लेखक है।

इस प्रकार तीनों राज्यों में इन दोनों परिवारों ने बड़ी स्वामीभक्ति से सेवा की थी।