माली सैनी संबोधन

माली सैनी संबोधन ही सार्थक प्रयोग है

वैदिक काल में भारतीय समाज चार वर्णां में विभक्त था। कालान्तर में यह वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई और चारों वर्ण क्रमशः ब्राह्माण, वैश्य, क्षत्रिय व शूद्र से हजारों जातियां बन गई। भारतीय समाज विभिन्न जातियों में विभक्त हो गया , लेकिन यह विभाजन जातिव्यवस्था तक ही सीमित नहीं रहा। जातियेां में गोत्र व्यवस्था का प्रचलन हुआ जिससे एक जाति सैकड़ों गौत्रों में बंट गई। परिणामस्वरूप गौत्र परिवार बने और जातीय एकता में कमी आई।

इस गौत्र व्यवस्था के प्रादुर्भाव से हमारा माली समाज भी अछूता नहीं रहा। वर्तमान में भारत के कुछ राज्यों -दिल्ली, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि को छोड़कर अन्य समस्त राज्यों में देखें तो यह ज्ञात हेागा कि समस्त माली समाज अपने नाम के साथ उपनाम के रूप में अपने गौत्र का प्रयोग करते है न कि माली सैनी का। राजस्थान में भी अलवर, शेखावाटी आदि कुछ क्षेत्रों को छोड़कर समस्त राजस्थान में अधिकांशतः उपनाम के रूप में गौत्रों का ही प्रयोग किा जाता है। अपने उपनाम के रूप में गौत्रों के प्रयोग के पीछे समाज के व्यक्तियों का क्या उदेश्य है, यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। वह हमारी पहचान में रूकावट है। इस गौत्रप्रथा से माली समाज का बोध सम्भव नहीं है जिसमें हम एकता की डोरी में बंध सकें। गोत्रों के कारण समाज के सदस्य परस्पर परिचित नहीं हो पाते। गौत्रों के उपयोग से सामाजिक दूरी बढी है क्योंकि वर्तमान हिन्दू समाज में लगभग एक से ही गौत्र सभी जातियों में आसानी से मिल जाते है। जैसे -चौहान गौत्र माली समाज क अलावा राजपूत, मुस्लिम, धोबी, चमार आदि अन्य समाजों में भी पाये जातें है। और भी ऐसे बहुत से गौत्र है जो अनेक समाजों में पाये जातें है जैसे राजेरिया, खटीक, कायस्थ, माली, बनियों के गौत्रों में पाया जाता है। इस प्रकार यह अनुमान लगाना सम्भव नहीं है कि अमुक गौत्र वाला अपने समाज से सम्बन्धित है या नहीं। स्पष्ट है कि इसके कारण हमारे समाज के व्यक्ति आपस में एक-दूसरे से अपरिचित से रहते है।

गौत्रों की अधिकता के कारण समाज का व्यक्ति समाज से विलग रहता है क्योंकि वह सभी गौत्रों से परिचित भी नहीं होता है। राजस्थान से बाहर तो जाति के गौत्रों से स्थिति और भी अधिक गम्भीर हो गई है क्योंकि अन्य प्रदेशों में जाति-भाईयों के गौत्रों से यहां के गौत्र मेल नहीं खाते हैं परन्तु समझने की बात है। भार्गव, जैन, गुप्ता और सिख जाति केवल अपने जाति नाम से जानी जाती है। उनके सम्बोधन में गौत्रों का प्रचलन नहीं है।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि गौत्र व्यवस्था माली समाज की एकता के लिए अभिशाप बन गई हैं। गौत्र के प्रयोग से जाति का पता लगााना कठिन हो गया है। उतः हमें अपनी जाति को गुप्त नहीं रखना चाहिए। हमारी जाति का उज्जवल इतिहास है फिर जाति के नाम से हीन-भावना क्यों होती हैं? महात्मा ज्योतिबा फूले का भी माली जाति में जन्म हुआ, उन्होंने भारतीय समाज के दलितों का उत्थान किया। हमें हमारी जाति पर गर्व है। अतः हम सभी को अपने नाम क उपनाम के बदले में माली सैनी का प्रयोग करना चाहिए जिससे समाज में एकता स्थापित हो सके। समाज में व्यक्ति परसपर एक-दूसरे को पहचान कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सहयोग करें, अन्यथा हमारा माली-समाज जो देश के पिछड़े समाजों की सूची में हैं, लाख कोशशें के पश्चात् भी पिछड़ा ही रह जाएगा। इसके लिए हमें भावी पीढ़ी के नाम के साथ उपनाम के स्थान पर सैनी या माली का उपयोग कर के समाज की पहचान में सहायक बनाना चाहिए। ऐसा करने से हमारा समाज अधिक संगठित हो सकेगा।