माली – सैनी जाति की उत्पति

चार कुलों के सम्बन्ध में विवाद

भारत के राजकुलों में चार कुल-प्रतिहार, चौहान, परमार और सोलंकी अग्निवंश में माने जाते हैं। उनके विषय में विभिन्न इतिहासकारों की विभिन्न धारणाएँ हैं। डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है कि असुरों का नाश करने के लिए वशिष्ठ ने प्रतिहार, चौहान, परमार और चालुक्य नामक चार क्षत्रिय कुल उत्पन्न किये लेकिन यह मान्यता मिथ्या है। इस धारणा की उत्पति पृथ्वीराज रासो के प्रकरण से हुई और इस प्रकार अग्निकुल की मान्यता सोलहवीं सदी से ही आरम्भ हुई। अग्निवंश की मान्यता को मिथ्या बताने वाले विद्वान् ही दूसरे शब्दों में इसकी उत्पत्ति अग्नि द्वारा शुद्ध करने की मान्यता के अनुसार स्वीकार करते हैं।

वास्तविकता यह है कि जब वैदिक धर्म ब्राह्माणों के नियंत्रण में आ गया तो उसके विरूद्ध गौतम बुद्ध ने बगावत करके अपना नया धर्म प्रचलित कर दिया। उस समय क्षत्रिय वर्ण वैदिक धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अंगीकार करता चला गया। क्षत्रिय राजा बौद्ध हो गये। वैश्य समाज ने भी बौद्ध या जेन धर्म को अपना लिया। वैदिक परम्पराएँ नष्टप्राय हो गईं। तब ब्राह्माणों ने पुराणों तक में यह लिख दिया कि कलियुग में ब्राह्मण और शूद्र ही रह जाएँगे। कलियुग के राजा शूद्र ही होंगे। तब एक ब्राह्मण वर्ग ही ऐसा था जो बौद्ध धर्मावलम्बी नहीं बना था। उस समय वैदिक धर्म व समाज की रक्षा करने की समस्या उठ खड़ी हुई क्योंकि समाज की रक्षा करने वाले क्षत्रिय बौद्ध हो चुके थे। ऐसी परिस्थिति में वेदिक धर्म की रक्षा करने की समस्या ब्राह्माणों के सामने आ गईं ओर इस कारण किसी न किसी रूप में क्षत्रियों को वापस वैदिक धर्म में लाने के प्रयास आरम्भ हो गये। तब ब्राह्मणों के मुखिया अथवा ऋषियों के अथव प्रयासों से चर क्षत्रिय कुलों को बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में परिवर्तित किया गया और यह कार्य आबू पर्वत पर यज्ञ करके किया गया। यही अग्निकुल का स्वरूप है; भले ही प्रतिहार व चौहान ( चाहमान ) सूर्यवंशी तथा चालुकय मूल रूप में चन्द्रवंशी क्षत्रिय ही थे। इसी कारण बाद के तीन वंशों के अभिलेखों में वे अपने प्राचीन वंशों का ही हवाला देते रहे। परमार वंश वाले स्वयं को प्राचीन वंश वाले न मिखकर अग्निवंशी ही लिखते रहें। परमार वंश का उल्लेख अबुलफजल ने ‘‘ आईने अकबरी’ ‘ में किया है और उसका समय वि.सं. 818 (ई.सन् 761) दिया है। यह समय कुमारिल भट (ई.सन् 700) के बाद का है जबकि बौद्धों को वैदिक धर्म में वापिस लाने का कार्य आरम्भ हो गया था।

क्षत्रियों व वैश्यों द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद उनके वैदिक संस्कार लुप्त हो गये थे और वे अपने गोत्र तक भी भूल चुके थे। अतः जब वे लोग वैदिक धर्म में वापस आए तब उन्होंने नये सिरें से पुरोहित बनाए और उन्हीं के गोत्र, उनके यजमानों के ही गोत्र मान लिए गए। इतिहासकारों की भी यहीं मान्यता है। इतना हो जाने पर भी काफी क्षत्रिय वंश बौद्ध धर्म में ही रहे। तब इन्हें बौद्ध धर्मावलम्बी क्षत्रियों से अलग बतलाने के लिए उन क्षत्रियों के बदले उन्हें ‘‘ राजपुत्र’ ‘ सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया गया। इन्हें उनसे श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया गया। वैसे ‘‘ राजन्य’ ‘ शब्द पहले से ही क्षत्रियों के लिए प्रयुक्त होता आ रहा था। अब उन्हें क्षत्रिय के स्थान पर ‘‘ राजन्य’ ‘ ही कहा जाने लगा। जब संस्कृत की जगह प्राकृत भाषा का प्रचार हुआ, तब राजन्य शब्द के लिए एक अन्य पर्यायवाची शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश रूप राजपूत चलित हो गया।

चार क्षत्रियकुलो- प्रतिहार, चौहान, चालुक्य व परमार को बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में लाना एक महान् सफलता थी लेकिन उसे सयम भी अधिकांश क्षत्रियवर्ग बौद्ध धर्म में ही थे। अब तत्कालीन ऋषि इस कार्य में जुट गये कि शेष क्षत्रियों व वैश्यों को वापस बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में लाया जाए। इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य आदि गुरू शंकराचार्य का था जिन्होंने भारत से करीब-करीब बौद्ध धर्म में वापस आने पर ऋषियों ने चार अग्निवंशी तथा 32 और प्रमुख वंशों को मिलाकर क्षत्रिय समाज में 36 कुलों की एक नई परम्परा स्थापित की जो अभी तक चली आ रही हैं।
इन 36 कुलों की सूची इस प्रकार है –

सूर्यवंश –

  1. कच्छवाहा
  2. राठौड़
  3. गुहिलोत
  4. हुल
  5. प्रतिहार
  6. परिहार
  7. चौहान
  8. देवड़ा
  9. जेठवा और
  10. निकुम्भ।

चन्द्रवंश –

  • चालुक्य
  • तंवर
  • गोहिल
  • गुर्जर
  • कलचुरी
  • रोसजुज
  • रमार (पंवार)
  • चापोत्कट (चावडा)
  • यादव
  • योतिक ( यौधेय )
  • मकवाना(झाला)
  • शिलाहर
  • चन्देल
  •  
  •  

अन्य वंश –

  • टाक
  • दहिमा
  • दहिया
  • अभीयर (आभीर)
  • सैंधव
  • राजपाल
  • कोटपाल (कोटकुल)
  • हरिवट
  • मट
  • कवितिय
  • अनिग (अनग)।

वि. सं. 1205 (ई.सन् 1148) में रचित कल्हण की ‘‘ राजतंरगिणी’ ‘ में सबसे पहले 36 कुलों का उल्लेख हुआ हैं। यह सूची पूर्णयता सही नहीं है। पृथ्वीराजरासों में भी सूची दी गई है जो इससे कुछ भिन्न है। कर्नल टाड ने अपने इतिहास में 5 सूचियाँ प्रकाशित की हैं इन सूचियों में नाम भिन्न होते भी उनकी संख्या 36 ही बतलाई गई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वस्तुतः मूल वंश सूर्य व चन्द्रवंश ही है। कालान्तर में इन्हीं वंशों से विभिन्न कुल निकले।

क्षत्रिय सेनाओं का विघटन और उनका धन्धापरिवर्तन बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में आ जाने के पश्चात् ही क्षत्रियों को विदेशी शक्तियों से सामना करना पड़ा और दुर्भाग्यवश हमारी क्षत्रिय सेनाओं को कई बार हारना पड़ा। विजेता सदा पराजित राज्य की सेना का विघटन करता है। जैसे प्रथम महायुद्ध (1914-18) में हारने वाली जर्मन सेना व द्वितीय महायुद्ध (1939-1945) में हारने वाली जापानी सेना का विघटन हुआ। यही हाल पराजित आर्यसेनाओं के क्षत्रियों का हुआ। इस कारण इन क्षत्रियों को सैन्य कर्म छोड़कर अपनी जीविका के लिए अन्य धन्धे अपनाने पड़े। क्षत्रियों के लिए धर्मशास्त्रकारों ने यह व्यवस्था दी थी कि संकटकाल में वे अपने से निम्न वर्ण के कर्म अपना सकते हैं। कभी-कभी ऐसी स्थिति भी होती थी कि व्यक्ति अपने वर्ण के कर्म करते हुए भी अपने परिवार का पोषण न कर सकने में असमर्थ होता था, तब वह अपनी आजीविका चलाने के लिए दूसरे वर्ण के कार्य करने लगता था। गौतक के अनुसार जीविकोपार्जन के निमित्त क्षत्रिय वर्ण वैश्य कर्म अपना सकता था-

‘‘राजन्यो वैश्यकर्म।
प्राणसंशये राजन्यो कर्माददीत् तेनात्यान् रक्षेत।’’

इसी प्रकार का मत बौधायन ने भी प्रकट किया था। कई क्षत्रियों ने कृषिकार्य, बागवानी आदि को आजीविका के लिए अपना लिया। ऐसे क्षत्रियों में गहलोत, पड़िहार, परमार ( पंवार ), चालुक्य ( सोलंकी ), कच्छवाहा, चौहान, तंवर, राठौड़, दहिया, टाक और भाटी आदि कुल के लोग थे।

इस क्षत्रियकुलों के कुछ मुखियाओं की एक महत्वपूर्ण बैठक वि.सं. 1257 की माघ शुक्ला 7 ( ई. सन् 1201 की जनवरी, शुक्रवार ) को अजमेर के निकट पुष्कर तीर्थ में हुई जिसका विवरण मारवाड़ राज्य की रिपोर्ट सन् 1891 की मर्दुमशुमारी में दिया गया हैं। इसकी मूल ‘‘लिखत’’ श्री जगदीशसिंह गहलोत शोध संस्थान, जोधपुर में अभी भी सुरक्षित है।