माली जाति का प्रमाणिक इतिहास

जोधपुर में गहलोत माली ज्यादा संख्या में हैं। वे अपनी पीढ़ियाँ कूचेरे के गहलोत राव ईसरदास से मिलते हैं जो तुर्कों के डर से मुसलमान हो गया था। उसकी औलाद में से हेमा माली जो बालेसर के ईदों का प्रधान था, राव चूंडाजी को मंडोर का राज्य दिलाने की कोशिश में शामिल था। उसको रावजी ने मंडोर में अमल हो जाने पर अपने इकरार के माफिक जो पोस बदि 10 संवत् 1449 को थाने सालोडी में किया गया था, मंडोर के पास बहुत सी जमीन माफी में दी थी जिसके उपर राव रिडमलजी के पीछे जबकि राणा कुंभाजी का मंडोर में कब्जा हो गया था, उनके हाकिम अहडा हिंगोला ने कई लागों लगादीं। हेमा की औलाद में चुतरा माली महाराजा श्री जसवंतसिंह जी के साथ काबुल गया था। एक दिन महाराजा ने काबुल के अनारों की बहुत बखान की। चुतरा हाजिर था। उसने अर्ज की कि ऐसे अनार जोधपुर में भी पैदा हो सकते हैं। महाराजा ने उसे मंजूरी देकर काबुल की मिट्टी से भरे हुए 1000 उंट जोधपुर भेजे। चतुरा ने उस मिट्टी से कागे में बाग लगाकर काबुली अनार, नीबू और बेर पैदा किये और महाराज के हजूर में ले गया। महाराजा ने अनार पसंद करके बादशाह को नजर किये। बादशाह के चखने वालों ने चखकर कहा कि ‘‘मजा तो काबुली अनार का सा है लेकिन उनमें मुर्दे की बार गंध आती है।’ ‘ महाराजा ने यह बात कबूल कर ली क्योंकि कागे में मुरदे जलाये जाते हैं।

चुतरा संवतृ 1730 में महाराज के पास जमरोद में मरा। महाराज ने उसकी यादगारी में जमरोद से लेकर मंडोर तक जहां उसका घन था, बारह-बारह कोस पर पक्के चबूतरे बनवाये और फरमाया कि आयंदा जो बाग बने उसमें चुतरा के नाम का भी चबूतरा बनावें। यह बात अब तक प्रचलित और सुनी जाती है।महाराज अभयसिंह जी के जमाने में अक्खा माली ने गुजरात से के तकी चम्पा और रायण यानी खिरनी के दरखत लाकर मंडोर में लगाये थे और वहाँ से वह एक लंगूर भी ले आया था। मंडोर के लंगूर उसकी नस्ल से समझे जाते हैं।

अक्खा से महाराजा श्री अभयसिंह जी बरखिलाफ अपने बुजुर्गों के जो छोटे आदामियों से निहायत ही कम बोला करते थे, बहुत सी बातें किया करते थे क्योंकि उनको बागात का बहुत शौक था। इस सब से अक्खा को बहुत घमंड हो गया था और वह मुश्किल से दूसरे आदमियों के साथ बातचीत किया करता था। आखिर में औरत मर जाने से उसको जनून हो गया था। उस हालत में वह बार-बार यही कहता था ‘‘हूं ने महाराजा ने अब्भो पंचोली’ ‘ , यानी मैं और महाराज और अब्मा पंचोली। अब्मापंचोली महाराज का मरजीदान था और अक्सर हुजूर में हाजिर रहा करता था। इसलिये अक्खा अपने ख्याल में महाराजा और अब्भा पंचोली के सिवाय और किसी को इस लायक नहीं समझता था कि वह उससे बात करे।

कुछ गहलोत माली मंडोर में तनापीर की कब्र के मुजावर हैं। वे मुसलमान हैं। वे मुर्दे का बारहवां भी करते हैं और चालीसवां भी। बारहवें में तों मालियों को जिमाते है और चालीसवे में फकीर वगैरह मुसलमानों को कहते हैं कि इनका मोरिसआला पीर की कब्र पर फूल चढ़ाया करता था और चढ़ावा भी लेता था। महाराजा उदयसिंह जी और सूरसिंह जी के जमाने में जबकि अकबर बादशाह के अजमेर में आने-जाने से पीरों की मानयता ज्यादा हुई और चढ़ावा भी बहुत सा आने लगा तो कुछ मुजावर अजमेर से आकर तनापीर की कब्र का दावा करने लगे। वह माली मुसलमान हो गया किन्तु उसने उनको दखल न दी। मुसलमान हो जाने से उसके भाई बंदुओं ने उसके हिस्से की जमीन जब्त करनी चाही मगर उसने उनको भी यह इकरार करके राजी कर लिया कि ‘‘मैं न्यात’ ‘ , बहन, स्वासनी और भाटों को बदस्तूर मानता और औसर मोसर में जिमाता रहूँगा।

एक गहलोत माली बीकाजी के साथ मंडोर से काले गोरे भैरवजी की मूर्ति लेकर गया था। उसकी औलाद बीकानेर में है। उनमें से एक शख्स को जो महाराजा डूंगरसिंह जी का धाभाई था, सोना भी मिला। बाकी खांपों के मालियों का हाल खास तौर पर लिखने के लायक नहीं लगता। हाँ, यह बात अलबत्ता मंडोर के मालियों की मारवाड़ की ख्यात में काबिले तारीफ है कि जब शेरशाह बादशाह ने जोधपुर फतह कर लिया था और राव मालदेवजी छप्पन के पहाड़ों में चले गये थे तो दो वर्ष पीछे मंडोर के मालियों ने बादशाह के मरने की खबर सुनकर पठानों का थाना उठा दिया और रावजी को खबर दी। उन्होने फौरन पहुँच कर जोधपुर में अमल कर लिया।