माली जाति का प्रमाणिक इतिहास

सैनिक क्षत्रिय कौन हैं ?

यह एक कृषक जाति है, जो मारवाड़ राज्य में अधिकतर खेती बाड़ी का धंधा करती है। सन् 1941 की मर्दुमशुमारी के अनुसार उनकी जनसंख्या 95,000 से अधिक थी। आजकल वे लोग भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते है। जैसे ‘‘राजपूतमाली’’, ‘‘सैनिक राजपूत’’ या ‘‘सैनिक क्षत्रिय’’ । इस जाति की उत्पत्ति और परम्परागत इतिहास के विषय में इस समय पर्दा पड़ा हुआ है, जिसका कारण यह है कि उसका पेशा खेती-बाड़ी करने का हो गया है। चूंकि खेती-बाड़ी का धन्धा अन्य बहुत सी हिन्दू जातियों के लोग और मुसलमान तक भी करते हैं, इसलिए इस जाति का मौजूदा नाम भ्रम उत्पन्न करने वाला है। उससे इस जाति की वास्तविक परम्परा, इतिहास और उत्पत्ति का सच्चा ज्ञान हीं होता। किसी व्यवसाय, आजीविका तथा धन्धे से किसी व्यक्ति की जाति का निश्चय नहीं होता। हम देखते है कि भिन्न-भिन्न जातियों के लोगा एक ही प्रकार का धन्धा करते हैं। जैसे-बागवानी। बागवानी तो वास्तव में एक व्यवसाय है, न कि जाति का पेशा है। वर्तमान समय में जबकि विविध शक्तियां लग रही हैं और उनका लक्ष्य यह है कि जातियों और उपजातियों में जो अनेकता और भेदभाव पाए जाते है, उनके समाप्त किया जावे। अब तो इस बात का प्रयत्न किया जा रहा है कि उन सभी जातियों और समुदायों को संगठित किया जाय जो धंधो में एक सी समानता रखती हैं, तब यह स्वाभाविक बात है कि ‘‘सैनिक-राजपूत’’ भी इस विषय पर जोर देवें कि उनका उद्गम क्षत्रिय है और वे लोग फिर सुप्रसिद्ध और महान् राजपूत जाति के निकट सम्पर्क में आवें ताकि संगाठित जनसंख्या से उनका बल और उत्कर्ष बढ़े।इस विषय में बहुत कुछ उपयोगी और सामायिक काम हाथ में लिया गया है और उसमें दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता पूर्वक श्रीगणश किया गया है। हाल ही में एक उदाहरण देखने में आया है जिसमें अजमेर-मेरवाड़ा के रावत ( मेर ) राजपूतों को राजपूत जाति में पुनः मिलाने का उद्योग किया गया है।

जोधपुर के महाराजा हनवंतसिंह 30 अक्टूबर, 1947 को रावत राजपूत कान्फ्रेस, जो सैन्दड़ा ( मारवाड़ ) में हुई थी, के अवसर पर इस प्रकार की घोषणा की थी-
‘‘दूसरा मेरात आदि भाई जो कदेई राजपूत हा, अगर राजपूत बणवारो विचार करेला तो मैं उण विचार रो स्वागत करूंला।’’

सैनिक जाति किस प्रकार जुदा जाति बनी

(क) जोधपुर राज्य की मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् 1891 ई. भाग 2 पृष्ठ 40 (अंग्रेजी संस्करण) में लिखा है कि-

‘‘कुछ राजपूतों को शाहबुदीन गौरी ने कैद कर लिया और बादशाह के बड़े बागवान ने जिसका नाम बोवाजी था, बीच बचाव करके उन्हें छुड़ा दिया, जबकि उन्होंने बागवानी का पेशा अख्तियार कर लिया। इस प्रकार वे माली बन गए। उनमें राजपूतों के मुताबिक गौत्र खांपे आदि पाए जाते हैं जैसे चौहान, सोलंकी, भाटी, तंवर आदि।’’

(ख) पंजाब गाजेटीयर(जिला हिसार) सन् 1892 ई. पृष्ष्ट 132 में लिखा है कि-

‘‘माली जाति की उत्पत्ति जनश्रुति के अनुसार यह है कि वे लोग शुरू में क्षत्रिय राजपूत थे। परशुराम क्षत्रियों का नाश कर रहा था, उस समय उनके क्रोध से बचने के लिए इनके पूर्वजों ने अन्य राजपूतों के साथ अपना सामाजिक दर्जा त्याग दिया और वे भिन्न-भिन्न व्यवसायों में लग गये।’’

(ग) इनके सिवाय एक और तरीका जो बुद्धिग्रात्ता भी प्रतीत होता है वह है-

राजपूतों में शनैः भूमि का बंटवारा ओर उसके कारण उनका किसानी धंधे में आना। सेना से हटाये गये राजपूतों में से कुछ लोगों ने सिर्फ बागवानी का धंधा अपनाया और कालान्तर में वही समुदाय एक जुदा जाति में परिणत हो गया। हिन्दूशास्त्रों में लिखा है कि क्षत्रिय लोग अपने सैनिक कार्यों के सिवाय विपतिकाल में कृषि व्यवसाय भी कर सकते हैं। जैसा कि मनुस्मृति में लिखा है-

वैष्यवृत्याणि जीवस्तु ब्राह्माणः क्षत्रियोडपि वा।।
अर्थात् ब्राह्माण व क्षत्रिय (विपत्ति काल में) वैश्यवृत्ति से जीविका चलायें।
विद्यााशिल्पंभृतिः सेवा गोरक्षा विपिनं कृषिः।
धृति भेक्ष कुसीदं च, दशः जीवनहेतवः ।।

अर्थात् विद्या, कारीगरी, नौकरी, दुकानदारी, खेती, पशुपालन, ब्याज लेना, संतोष, सेवा व भिक्षा। इन जीविकाओं में भिक्षा सबसे अन्तिम है।

इसके सिवाय आपातकाल में राजपूत की जीविका के लिए गौतम स्मृति अध्याय 10 में भी ऐसा ही एक श्लोक उल्लिखित है-

यथोक्तान् कृषिवाणिज्ये चास्वयं कृते कुसीदं च राज्ञः।

अर्थात् क्षत्रिय के विशेष कार्य प्रजापालन के सिवाय खेती बाड़ी व शिल्पकारी बताए गए हैं।

राजपूत अपना खास काम राज्य करना समझते हैं। मगर राज्य करने वाले राजपूत(क्षत्रिय) बहुत थोड़े है बाकी सब खेती करते है। राजस्थान में जो राजपूतों (क्षत्रिय) का खास मुल्क समझा जाता है, खेती बाड़ी करने वालों की तादाद मारवाड़ जोधपुर राज्य में 85 प्रतिशत है। व्यवहार में भी हम देखते है कि राजपूतों में अधिकांश लोग खेतीबाड़ी से जीवन निर्वाह करते हैं। परन्तु केवल धंधे या पेशे के बदलने से ही गोत्र ( खांप-अल्ल-वंश-नुख-पोठभेद-अटक ) खानदानी रीति-रिवाज और रस्मों में कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि चालू गौत्र व राजवीर्य की शुद्धता आदि से ही जातियों की वंश परम्परागत सच्ची स्थिति मालूम होती है। इसके सिवाय यह बात भी स्पष्ट है कि क्षत्रियों राजपूतों में दो प्रकार के समुदाय होते हैं। एक तो वे लोग जो युद्धसेवा में रणक्षेत्र में जाते है और दूसरे वे जो रिजरविस्ट कहलाते है। सैनिक क्षत्रिय जाति के लोग दूसरे दर्जें में गिने जा सकते हैं।

(घ) जोधपुर राज्य की मनुष्यगणना की रिपोर्ट सन् 1891 ई. हिन्दी संस्करण, जो 110 वर्ष पहले बड़ी खोज पड़ताल व जांच के बाद राज्य के बड़े-बड़े मुत्सदी, विद्वान्, इतिहाविद्वों और वयोवर्द्धो की कमेटी द्वारा संशोधित तथा श्री महाराजा साहब के स्वीकृत करने पर एक लाख से अधिक रूपये के व्यय से तैयार हुई थी, उस ग्रंथ के पृष्ठ 81 पर इस प्रकार वर्णन मिलता है-

‘‘महूर माली जोधपुर में बहुत ही कम हैं बल्कि गिनती के हैं जो कभी किसी वक्त में पूरब की तरफ से आये थे। बाकी सब उन लोगों की औलाद है जो राजपूत से माली हुए थे और उनकी 12 जातें (वंश-खांप) कछवाहा, पड़िहार, सोलंकी, पंवार, गहलोत, सांखला, तंवर, चौहान, भाटी राठौड़, देवड़ा और दहिया हैं।’’

इसी प्रकार सरकारी रिपोर्ट में हर एक कौम को उसकी कौमियत से ही लिखा गया था परंतु इस महत्वपूर्ण प्रामाणिक ग्रंथ के पृष्ठ 83 पर भी इस जाति को ‘‘राजपूत माली” लिखा है।

राजपूत माली – ‘‘ये मारवाड़ में बहुत ज्यादा है। इनके बड़ेरे पूर्वज शहाबुदीन, कुतुबुदीन, गयासुदनी और अल्लाउदीन वगैरह दिल्ली के बादशाहों से लड़ाई हार कर जान बचाने के वास्ते राजपूत से माली बन गये थे। माली होना पृथ्वी राज चौहान का राज्य नष्ट होने के पीछे शुरू हुआ था, यानी जबकि संवत् 1249ई. सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान और उनकी फौज के जंगी राजपूत शहाबुदीन गौरी से लड़कर काम आ गये, और उनसे दिल्ली-अजमेर का राज्य छूट गया तो उनके बेटे-पोते जो तुर्कों के लश्कर में पकड़े गये थे, वे अपना धर्म छोड़ने के सिवाय और किसी तरह अपवना बचाव न देखकर मुसलमान हो गये। वे गौरी पठान कहलाते हैं। उस वक्त कुछ राजपूतों को बादशाह के एक माली ने माली बतलाकर अपनी सिफारिश से उन्हें छुड़ा लिया, बाकी पकड़े गये और धर्मभ्रष्ट किये जाने के भय से हथियार बांधना छोड़कर इधर-उधर भागते और दूसरी कौमों में छुपते रहे।

उस हालत में जिसको जिस कौम में पनाह मिली, वह उसी कौम में रहकर उसका पेशा करने लगे। ऐसे होत-होते बहुत से राजपूत माली हो गए। आगे चलकर जोधपुर राज्य की जनगणना में फिर लिखा है कि-‘‘कुतुबुदीन बादशाह ने जबकि वह अजमेर की तुर आया था, उसने संवत् 1256 के लगभग उन लोगों को अजमेर और नागौर के जिलों में बसने और खेती करने का हुक्म दिया। जोधपुर राज्य की इस जनगणना रिपोर्ट सन् 1891 ई. में पृष्ठ 98 पर एक सूची उन ‘‘मौरिसआला’’ लोगों की दी गई है जो पहले-पहले राजपूत से माली हुए थे।

वास्तव में यह मुसलमान बादशाहों की राजनीति का नतीजा ही था कि उन्होंने राजपूतों को खेती-बाडी आदि धन्धों में बिखेर कर निहत्था कर दिया और इस तरह लड़ाई की एक प्रबल जड़ को नष्ट कर दिया। उन्होंने राजपूतों को शान्तिमय काम धन्धों में, जैसे बागवानी और खेतीबाड़ी आदि में, लगाया या उन्हें मुसलमान बना डाला। जातियाँ और उपजातियाँ बनाना एक रानैतिक उपाय या तरीाक था जिससे क्षत्रिय का संगठन तोड़ा गया। यह तरीका कोई नया नही हैं। यह नीति हाल ही में द्वितीय विश्वव्यापी यूरोपीय महायुद्ध (1939-1645) के विजेताओं ने अपने प्रधान सेनापति जनरल मेकआर्थर के द्वारा जर्मन और जापानियों का सैनिक बल और जोश दबाने को भी जापान व जर्मनी में बरती थी अर्थात् उन्हें निश्स्त्र कर खेती बाड़ी में लगाया था।