माली जाति का प्रमाणिक इतिहास

यह निर्विवाद सिद्ध है कि ‘‘सैनिक क्षत्रिय’’ विशुद्ध राजपूत हैं इसके प्रमाण निम्नलिखित हैं-

  1. सैनिक राजपूतों में वही वंश खांपें चालू गोत्र है जो राजपूतों में हैं। एक भी अपवाद नही है अर्थात् इनमें से एक भी खांप ऐसी नहीं है जो राजपूतों में नहीं पायी जाती हो। इनमें एक भी ऐसी खांप नहीं जो किसी भी दूसरे वर्ण या दूसरी जाति से सम्बन्ध रखती हो।
  2. इनके रिवाज, रीति-रस्में, सदाचार, व्यवहार, शारीरिक संगठन और आकृति राजपूतों से पूर्णतया मिलती है।
  3. क्षत्रिय वंश की परम्परा जो इनमें पाई जाती है, वह इस जाति में विविघ घरानों और गोत्रों के बहीभाटों द्वारा कदीम से कायम है।
  4. इनके कुछ हकूक ऐसे चले जाते है जिनमें मालूम होता है कि इस जाति को एक खास रूतबा या दर्जा आज तक हासिल है। मिसाल के तौर पर मंडोर जोधपुर में राठौड़ राजघराने के श्मशान हैं, वही पर इस जाति की अन्त्येष्ठि के अधिकार अब तक चले आ रहे है। मंडोर में ईशर निकालने का हम इनको है जो मारवाड़ में सिवाय राजपूत जागीरदारों के दूसरे किसी व्यक्ति या जाति को नहीं हैं। इनके बेरे कुएँ, काश्त की जमीन और ढाणियाँ इनके अपने गौत्रों के नाम से विख्यात हैं। जैसे पडिहारों की ढाणी, गहलोतो का बेरा, कच्छवाहों की बस्ती, टाकों का वास आदि। इनके ये नाम इनके पेशेवर नामों से नहीं जाने जाते हैं।
  5. परम्परा से नइकी सेवाएँ राजपूती ढंग की रही हैं। मिसाल के तौर पर मंडोर के हेमाजी गहलोत ने जो बालेसर के ईन्दा पड़िहारें का प्रधान दीवान था, मंडोर प्राप्त करने में राव चूंडाजी राठौड़ की सहायता की थी। मंडोर के चतुराजी गहलोत महाराजा श्री जसवन्तसिंह जी प्रथम (सं. 1695-1735 वि.) की निजी सेना में थे और दरबार के साथ काबुल की मुहीम में गये थे। चतुराजी का देहान्त जमरूद पेशावर में श्रावण सुदि 4 विक्रम संवत् 1733 को हुआ था। महाराजा साहब का इन पर इतना अधिक प्रेम था कि उन्होंने इनकी यादगार में काबुल से लेकर मंडोर तक बारह-बारह कोस की दूरी पर चबूतरे बनवाने का हुक्म दिया। ( देखो ‘मारवाड़ की जातियों की उत्पत्ति का इतिहास’ जिल्द 3, पृष्ठ 90 जो जोधपुर स्टेट द्वारा सनृ 1895 ई. में छापा गया। ) अखाजी गहलोत जोधपुर नरेश महाराजा अभयसिंह जी (संवत् 1781-1805) के मर्जीदान-मुसाहिब थे। यही नहीं, इस जाति का इतिहास ही नहीं बल्कि मारवाड़ का इतिहास भी बिना गोरांधन के उल्लेख के अपूर्ण सा लगता है। गोरांदेवी रतनाजी टाक की पुत्री थी। यह वही मंडोर की अमर वीरांगना थी जिसने बादशाह ओरंगजेब के क्रुर हाथों से जोधपुर के नवजात महाराजा अजीतसिंह को बचाने की साजिश करने में मुख्य थी। इसकी अनुपम और स्वामी भक्तिपूर्ण सेवाएँ प्रशंसनीय है। इस कारण से औरगजैब बालक महाराजा अजीतसिंह को न पकड़ सका और मारवाड़ को मुगल साम्राज्य में मिलाने का उसका स्वप्न सफल हुआ। झाराबरदार लाखा, चैना, गोविन्द पडिहार, श्री महाराजा मानसिंह जी ( वि.सं. 1860-1900 ) के निजी सेवक और मर्जीदान थे। इन्होंने जालेर के घेरे मेंउनकी अच्छी सेवा की थी। इसलिए दरबार ने परगना नागौर का गांव सुखवासी वि.सं. 1896 में और पूंजला गांव परगना जोधपुर में इन्हें इनायत किये थे। चतुरसिंह कच्छवाहा और धूड़सिंह ने मारवाड़ राज्य की मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् 1891 ई. हिन्दी संस्करण के पृष्ठ 90 पर यह वृतान्त मिलता है-

‘‘एक गहलोत राव बीकाजी राठौर के साथ मंडोर से काला-गोरा भैरू देवताओं की मूर्ति लेकर आया था। उसक वंशज बीकानेर में रहते है। महाराजा डूगरसिंहजी ने उनमें से एक को धायभाई बनाया और सोना बख्शीश किया।’’ गोरांधाय का नाम अमर हो गया है क्योंकि वह मारवाड़ के ‘‘राष्ट्रीय गीत’ ‘ में इस प्रकार गया जाता है-

मुकन जैदेव गोरां जसधारी।
धन दुरगो राखिया अजमाल।।

इस राष्ट्रगान के नीचे फुटनोट में गोराधाय के विषय में यह वृ़त्तान्त लिखा गया हैं-
‘‘भंगन का स्वांग भर दिल्ली के शाही पहरे में से बालक महाराजा अजीतसिंह को टोकरी में लाकर सपेरे मुकन्ददास खींची को सौंपने वाली मंडोर की धाय टाक गोरां थी। इसकी बनाई बावड़ी जोधपुर शहर में पोकरण हवेली से सटी हुट्र ‘‘गोरंधा’ ‘ बावड़ी कहलाती है। इसकी छतरी कचहरी रोड़ पर है, जहाँ वह वीरांगना सं. 1761 ज्येष्ठ बदि 11 गुरूवार को अपने पति गुहिलोत धाओ मनोहर गोपी भलावत के साथ सती हुई।‘‘

इसी जोधपुर राष्ट्रीय गीत पुस्तक के हिंदी संस्करण (तृतीया वृति सन्1940 ई.) के पृष्ठ 17 (फुटनोट 5) में गोरांधाय का उल्लेख इन शब्दों में हैं-

‘‘टाक गोरांधाय ने भंगन का स्वांग भर दिल्ली के शाही पहरे में से बालक महाराजा अजीतसिंह राठोड़ को कूड़े कचरे की टोकरी में लेकर सपेरे मुकन्ददास खींची को सौंपा था। इसने प्रसन्नातापूर्वक अपने बालक को अजीतसिंह की जगह सुला दिया ताकि बादशाह ओरंगजेब बालक महाराजा अजीतसिंह को मारने की इच्छा करे तो उसका लड़का ही मरे। युद्ध के पश्चात् बादशाह उस बच्चे को ले गया और अपनी पुत्री जेबुन्निसा बेगम की देखरेख में मुसलमानी ढंग पर उसे पाला पोसा। यह बनावटी राजकुमार (मोहम्मदी राज) फिर 10 वर्ष की आयु में दक्षिण के युद्ध के समय प्लेग से बीजापुर में मरा। यह धाय मंडोर की सैनिक क्षत्रिय जाति के धाओ मनोहर गोपाल भलावत की पत्नी थी। इसकी बनवाई बावड़ी जोधपुर शहर में पोकरण हवेली से सटी हुई ‘गोरंधा’ बावड़ी है और इसकी छः खम्भों की स्मारक छतरी पब्लिक पार्क के पास कचहरी रोड़ पर है।’’

झाराबरदार लखाजी, चेनाजी, गोविन्द पड़िहार री दरबार महाराजा मानसिंह जी जोधपुर नरेश के निजी कर्मचारी थे और जालोर के घेरे के समय इन्होंने जो सैनिक सेवा दरबार की थी, उसके एवज में प्रसन्न होकर महाराजा ने विक्रम संवत् 1896 में गांव सुखवासी परगना नागौर रेख आमदनी 1000 सालाना का और गांव पूंजला परगना जोधपुर जागीर में दिया था। इसके अलावा दरबार ने उसको परगने जैतारण में भी कुछ बेरे कुए जमीन आदि भोम में इनायत किये थे। इनका इन्द्रराज रेकार्ड सरकारी दफ्तर ( श्री हुजूर वगैरह ) में है। चीन की लड़ाई (सन् 100) में और यूरोप की प्रथम लड़ाई (सन् 1914-18 ई.) में रिसालादार चतुरसिंह और धूड़सिंह कछवाहा जोधपुर निवासी ने रिसालदार और दफेदार रिसाला के ओहदों पर काम किया था। यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि उस समय शुद्ध राजपूत ही जोधपुर स्टेट रसाले में भरती हो सकते हैं।