माली जाति का प्रमाणिक इतिहास

प्राचीन क्षत्रियों की स्त्रियों को राजपरिवार में शिशुओं के लिए धाय रखने का रिवाज भी परम्परा से चला आता है। यह रिवाज अब बीकानेर और उदयपुर (मेवाड़) की स्टेटों में प्रचलित है। उदयपुर मेवाड़ के धायभाई ठाकुर अमरसिंह जी तंवर ए.डी.सी.टू. हिज हाइनेस महाराणा साहब और सुपरिन्टेनडेन्ट शिकारखाना व जन्तुशाला को विरधोलिया नाम का गांव और बेरासरन नाम का गांव बीकानेर राज्य में इनायत हुआ था। इस जागीर के साथ ही उनको डबल ताजीम और डबल सोना भी दिया गया था। घाभाई ठाकुर लक्षमणसिंह जी तंवर के पास रहा। राव बदनमल तंवर जो घाभाई ठाकुर अमरसिंह जी के दादा थे, वे हिजहाईनेस महाराणा श्री शम्भुसिंह जी के संरक्षक थे और उनकी वीरतापूर्ण और स्वामीभक्ति के सेवाओं के बदले में उनको वि.सं. 1928 कार्तिक बदि 8 को दोनों पांवो में सोना आदि व 20 हजार वार्षिक आय की जागीर दी गई थी। महाराणा ने उन्हें राव की पदवी भी इनायत की थी। वे बड़े प्रभावशाली और कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने पथिकों के आराम के लिये रास्ते ठीक कराये और बावड़ी और कुएं भी बनवाये। महाराणा शंभुसिंह जी ने स्वयं मय कुल राजपरिवार के जिसमें जनाना सरदार भी थे, मय परिजन के राव बदनमल की हवेली पधार कर और पांच दिवस निवास कर उनके उत्सव में भाग लेकर उनकी शोभा बढ़ाई थी और एक अनुपम सम्मान बक्शा था। कार्तिक बदि 3 विक्रम संवत् 1933 को हिजहाईनेस महाराणा सज्जनसिंहजी ने राव बदनमल को इजलास खास का मेम्बर भी बनाया था जो उदयपुर मेवाड़ राज्य द्वारा सन् 1884 ईस्वी में छपा और महामहोपाध्याय रायबहादुर डॉक्टर गौरीशंकर हीराचन्द औझा कृत उदयपुर लालसिंह जी के पुत्र कंवर डूंगरसिंह जी वि.सं. 1928 की सावण सुदि 7 (ई.सन् 1872 ता. 11अगस्त) को बीकानेर की राजगद्दी पर गोद बिठाने में धाओ राव बदनमल का पूरा हाथ था जैसा कि महाराज लालसिंह जी के खास रूक्के वैशाख सुदि द्वितीय 8 आदि ( लिखी महाराज श्री लालसिंह जी धारूजी श्री बदनमल जी न्हरों ज्वाद बंचसी अरपंच…) से तथा सहीवाला अर्जुनसिंह भटनागर (मिनिस्टर उदयपुर) के जीवन चरित्र पृष्ठ 21 से प्रकट होता है। राव बदनजी के पुत्र कर्नल रघुलाल वि.सं. 1932 फाल्गुण तक मेवाड़ राज्य के चारों रसाले व शम्भू पल्टन के कमान्डर सेनापति रहे। धाभाई उदयसिंह गहलोत को बीकानेर की भी ताजीम थी और वे बीकानेर स्टेट में सोनानवीस जागीरदार थे। जोधपुर के महाराजा सरदारसिंह जी की धाय भी गहलोत वंश की सैनिक-राजपूत महिला थी। उसका नाम था धाय हस्तीबाई गहलोत जो धायभाई राधाकिशन सांखला की धर्मपत्नी थी।

धाय का काम केवल नर्स व बच्चे पालने का ही नहीं था जैसा अब माना जाता है। धाय अपने स्तनों से राजकुमारों को भी दूध पिलाया करती थी। इसलिए ऐसी इजाजत देने के पहले इस बात का खास विचार रखा जाता था कि धाय का खून विशुद्ध क्षत्रिय हो और उसी प्रकार की समानता रखता हो। इस जाति के लोगों की सुन्दर आकृति, पुष्ट शारीरिक संगठन, मिलता हुआ रक्त, अच्छा दूध, शुद्ध सदाचार और व्यवहार होने से धाभाईयों को आदर की दृष्टि से देखा जाता रहा। इस परम्परा का आधार इस विश्वास पर है कि माता के दूध का विशेष प्रभाव क्षत्रिय चरित्र के गहन पर पड़ता है। इन सैनिक क्षत्रिय धाभाईयों का विशुद्ध क्षत्रिय दूध है, इसमें कोई शक नहीं है। यह प्रकट प्रमाण है और मान्य सत्य है। उदयपुर व बीकानेर के राजघरानों में तो धायभाई का यतवा है ही परन्तु राजस्थान के अन्य सरदारों और उपरावों से भी धायभाई आदर से देखे जाते हैं। मारवाड़ राज्य की मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् 1891 ई. हिन्दी संस्करण भाग 3 पृष्ठ में यह भी लिखा है कि-

‘‘अलबत्ता एक बात मंडोर के राजपूत मालियों के विषय में वर्णन करने योग्य है। जब बादशाह शेरशाह सूरी ने जोधपुर राज्य को (वि.सं. 1600ई. सन् 1543 में) जीत लिया और राव मालदेव राठोड़ छप्पन के पहाड़ों में चले गये थे, तब बादशाह शेरशाह की मृत्यु के दो वर्ष बाद में मंडोर के मालियों ने पठाणों की फौजी चैकियाँ हटा दीं और राव जी को इस बात की खबर दी जिस पर रावजी जोधपुर वापिस लोटे और उन्होंने उस पर दुबारा कब्जा किया।’’

जोधपुर स्टेट की मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन् 1891 ई. पृष्ठ 80 पर यह लिखा है-

‘‘गहलोत हेमा, जो बालेसर के ईन्दों का प्रधान था, राव चूंडाजी राठौड़ को मंडोर जोधपुर का राज्य दिलाने की कोशिश में शामिल था। उसको रावजी ने मंडोर में अमल हेा जाने पर अपने इकरार के माफिक, जो पोष बदि 10 वि. संवत् 1449 को थाना सालोडी में किया गया था, मंडोर के पास बहुत सी जमीन माफी में दी थी।’’