समाज रत्न एंव किसान नेता स्वर्गीय नृसिंह कच्छवाहा

समाज रत्न एंव किसान नेता स्वर्गीय नृसिंह कच्छवाहा

समाज रत्न एंव किसान नेता स्वर्गीय नृसिंह कच्छवाहा (29 दिसम्बर पुण्य तिथि के अवसर पर )

आजादी से पूर्व मारवाड के किसान तीहरी गुलामी से ग्रस्त थे। दिल्ली शासन, राजाओं का शासन व जागीरदारों का शासन किसानों पर अकथ अत्याचार एवं जुल्म होते थे। जागीरदारों के अत्याचारों से किसान पिसता रहता था। ग्रामीण मारवाड़ का 83 प्रतिशत इलाका जागीरदारों के अधीन था। वहां लाग-बाग (अनाज) के रुप में, पैदावार का 70 से 80 प्रतिशत तक हिस्सा वसूल किया जाता था।

राजाशाही व जागीरदारी के समय किसान का मतलब खेती करने वालों से होता था। किसान छात्रावास में सभी जाति/ वर्ग के लड़के रहते थे। जाट, माली, विश्नोई में अंतर नहीं था। सभी जातियां किसान मेव, भांभी, बलाई, बावरी, भील, मीणा, सरगरा, मेघवाल, विश्नोई सभी जुड़े हुए थे। किसान में जाति / वर्ग व धर्म से अंतर नहीं था। सवर्ण किसान भी इन खेतीहर किसान की मदद करते थे। सभी ने मिलकर जागीरदारी अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई।

परन्तु मारवाड के किसान अत्यन्त दुखी थे। अधिकांश जागीरदारों के खेतों पर मजदूरी करते थे। काम के बदले में केवल एक निश्चित मात्रा में अनाज मिलता था। जब इच्छा हो ठाकुर व बनिया किसान को बेदखल कर देते थे। घोड़ों के लिए दाना, अमलपानी, नजराने वसूल जाता था। जागीरदार बेगार व लाग-बाग लेने के बाद भी

मामूली सी गलती या नाराजगी पर कास्तकारों को उनका कोप भाजन बनना पड़ता था। काठ में देना, चारपाई पर पैर चौड़े करके बैठाना, मुर्गा बनाकर पीठ पर बोझरखना, धूप में खड़ा करना, हाथ बांधकर दंड देना मामूली बात थी, जिसकी कोई फरियाद भी सुनने वाला नही था।

घर का सामान बाहर फेंकना, पशु, पकड कर ले जाना, अनाज, खलिहान में आग लगा देना, स्त्री को बे-आवरु करना मामुली बात थी। जूते पहनकर जागीरदारों के घर के बाहर से नहीं निकल सकते थे घोड़े पर बैठकर बारात, बाजे काम में नही ले सकते थे व जागीरदारों के घर शादी विवाह आदि विशेष अवसरों पर लागे देनी होती थी। जागीरदार के मकान की मरम्मत, लीपा-पोती, छप्पर लगाना, अनाज का निनाण करने के लिए औरतें एवं लड़कियों को भी काम में लगा लिया जाता था। जागीरदार के परिवार में जन्म, मृत्यु आदि विशेष अवसर पर होने वाले खर्चे की भी किसान से वसूली होती थी एवं अनेक प्रकार के टैक्स देने पड़ते थे। बड़े जागीरदारों को जुडीशियल पावर एवं पुलिस अधिकार प्राप्त थे जिनको वे कास्तकारों के दमन में काम मे लेते थे। घर की बीजें किसान राजी खुशी से जागीरदार को दे देता तो उसकी खैर थी, वरना जागीरदार जबरन ले जाता था। सरकारी नौकरियों मे प्रतिनिधित्व नहीं था, कृषको को पढने नही दिया जाता था। किसानों को जबरन बेदखल करना आम बात थी। सैटलमेंट के रिकार्ड के खातों में जागीरदार का नाम दर्ज करना होता था। जमीन के स्थानांतरण एवं विकास की तो कोई सोच भी नहीं सकता था। घर पर डाका डालकर लूट लिया जाता था, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता था।

किसान केसरी बलदेव रामजी मिश्र की प्रेरणा से सन् 1941 में मारवाड किसान सभा के नाम से संस्था बनी व मारवाड किसान सभा के अध्यक्ष नृसिंह कछावा बने। श्री नाथूराम मिर्धा सचव बने मारवाड किसान सभा ने जागीरदारों के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई। देशी राज्य लोक परिषद के प्रमुख श्री जयनारायण व्यास राजनीतिक लडाई लड़ रहे थे, स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। दोनों संस्थाओं के नेताओं में पूर्ण सहयोग व मेलजोल था। किसान नेताओं ने किसानों में अपने अधिकारों को प्राप्त करने की भावना पैदा की। सरकार ने किसानों की शिकायतों पर जागीरी इलाकों का सर्वे व सैटलमेंट करवाया। इससे जागीरदारों में बड़ा रोष व्याप्त हो गया। कई गांवों में अनेक किसानों के कत्ल करवा दिए गये ताकि किसान दब जाए व उनकी तकलीफें उजागर नहीं हों।

13 मार्च, 1947 को डीडवाना तहसील के गांव डावडा में नृसिंह कछावा की अध्यक्षता में किसान सम्मेलन बुलाया गया। जिसमें लोक परिषद के नेता मथुरादास माथुर, द्वारिकादास पुरोहित, सी. आर. चौपासनीवाला, राधाकिशन बोहरा, किशनलाल शाह, वंशीधर पुरोहित, हरीन्द्रनाथ पहुंचे। डाबडा की धर्मशाला से जुलूस प्रारंभ हुआ। जुलूस में “किसानों की जय हो, खेत किनरा करसां रां”नारे लगाए जा रहे थे। जब जुलूस कोर्ट के नजदीक पहुंचा तो उसे चारों ओर से घेर लिया गया और जागीरदारों व उनके लोगों ने हमला करने की योजना बनाई। जागीरदारों के हमले का नेतृत्व गुलाबसिंह ढांकोली ने किया जिन्हें पुलिस आईजी का संरक्षण प्राप्त था। आक्रमणकारी बन्दुकों, बरछों, भालों व तलवारों से लैस थे। जागीरदारों द्वारा इस प्रकार हमले की सूचना के बावजूद किसान नेताओं ने मीटिंग करने का निश्चय किया। किसान नेतागण पन्नाराम चौधरी के घर पहुंचे। जागीरदारों व उनके किराए के साथियों ने पन्नाराम चौधरी के घर मे घुसकर हमला किया। हमले में पन्नाराम और उनके सुपुत्र मोतीराम मारे गए। मोतीराम की स्त्री तुलछी का मुंह विकृत (डीफेस ) कर दिया गया। पन्नाराम, लाघुराम, भीमाराम की ढाणियों को लूटा गया व जला दिया गया। सभी नेताओं की क्रूरतापूर्वक पिटाई की गई। लाडनूं के चौधरी रामूराम की गोली मारकर हत्या करदी गई। उनका लडका किशनाराम गंभीर रुप से घायल हुआ। पूर्ण अशांति, कोलाहल व भय का वातावरण छा गया। किसान नेताओं को सहयोग करने वाले किसानों पर खुलकर अत्याचार किया गया। महिलाओं, बच्चो व बुजुर्गों के साथ भी दुर्व्यवहार किया गया, मारपीट की गई।

द्वारकादास पुरोहित व मथुरादास माथुर नृसिंह कछवाहा व बंधीधर पुरोहित सभी गंभीर रूप से घायल हुए थे। नृसिंह कछावा को 8 फेक्चर व कई गंभीर चोटें आई थी, उन्हें मृत समझकर छोड़ दिया गया 16 किसान शहीद हो गए। मोलासर के सेठ डूंगरजी गंभीर रूप से घायल लोगों को जोधपुर लेकर गए और अस्पताल में भर्ती करवाया। जोधपुर में जयनारायण व्यास ने सरकार को चेतावनी दी व सत्याग्रह का निर्णय किया। अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद ने इस कांड की व जागीरदारों के अत्याचारों की भर्त्सना की। देश भर के समाचार पत्रों ने इस कांड की आलोचना की इससे यह खबर देश भर में आग की तरह फैल गई। मुंबई से प्रकाशित जन्मभूमि ने लिखा डाबडा कांड ने जो स्वतंत्रता का बीज बोया है उसमें राजाओं व जागीरदारों के लिए अब कोई स्थान नही होगा। जागीरदारों व सरकार पर कोई असर नही हुआ और उन्होंनें घायल नेताओं के विरुद्ध धारा 302 भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत राजद्रोह, शांति भंग करने व देश द्रोह करने के संबंध में मुकदमे दायर हुए। जागीरदार जन आकोश से भयभीत थे। अतः नेताओं को जेल से बिना जमानत छोड़ दिया गया।

ये मुकदमें राजस्थान बनने पर जयनारायण व्यास के मुख्यमंत्रित्वकाल में ही वापस लिए जा सके। देश आजाद हुआ और किसान सरकार में शामिल किये गये जिनमें श्री जयनारायण व्यास, श्री बरकतुल्ला खां व श्री नाथूराम मिर्धा थे। नृसिंह कछवाहा को किसान प्रतिनिधि के रूप में हीरालाल शास्त्री मंत्री मण्डल में ग्रामीण विकास, सहकारिता, श्रम मंत्री बनाया गया नया टिनेंसी एक्ट बना जिसके आधार पर सभी किसानों को खातेदारी का अधिकार एक ही रात में प्रदान कर दिया गया। डाबडा काण्ड से मारवाड को जगीरी जुल्मों से छुटकारा मिल गया। किसान नेता कुभाराम, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, पूनमचन्द विश्नोई व चन्द्रगुप्त वार्ष्णेय ने अपने आलेखों में उन्हें किसान नेता माना था और काश्तकारी कानून पर उनके योगदान को सराहना की थी।

मनीष गहलोत

मनीष गहलोत

मुख्य सम्पादक, माली सैनी संदेश पत्रिका