मुहावरे का गलत अर्थ न लगायें
इस मुहावरें का प्रयोग हम अपनी आम बोलचाल की भाषा में कई बार करते है। जब भी कोई अपने समाज का व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति के व्यवहार से असंतुष्ट हो जात है, तो खीझ कर वह अपने सजातीय व्यक्ति की तरफ इंगित कर कहता है ‘माळी मूळा छीदा भला’ । यह हमारे लिए बहुत निराशा उत्पन्न करने वाली बात है।
स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब हमारे समाज के अलावा अन्य वर्गों के लोग भी मालियों के बारे में व्यंग्य करते हुंए इस मुहावरे का प्रयोग करते हैं।
इस तहर से मुहावरे का गलत प्रयोग करके हम अपने समाज को बदनामी के अंधेरे कुएं में धकेल रहे हैं, जिसे रोकना अब बहुत जरूरी है वराना आने वाली पीढ़ियां भी इस तरीके से हमारा उपहास करती हुई नजर आंएगी, जिसके लिए हमें कभी माफ नहीं किया जा सकेगा।
वर्तमान में इस मुहावरें का जो अर्थ लगाया जाता है, वह यह है कि एक माली को अपने किसी सजातीय से न तो बात करनी चाहिए, और न ही उससे किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना चाहिए। इस तरीके की भावना माली समाज के विभाजन का कारण हो सकती है। अतः इस भावना से मुक्त होकर समाज के निर्माण में जुटना ही समय रहते उचित कदम होगा।
इस सारे सन्दर्भ में आइये, अम अपने आचोच्य मुहावरे पर विचार करें कि यह कैसे और क्यों प्रचलित हुआ? माली समाज के लोग चाहे विभिन्न व्यवसायों एवं नौकरियों में चले गये हों, परन्तु जब सैकड़ों साल पहले यह मुहावरा गढ़ा गया था, उस समय माली मुख्यतः एक ही धंधा करते थे और वह था साग-सब्जी पैदा करने का।
आज सब भली भांति जानते है कि साग-सब्जी की उपज पकने ओर तैयार होने के बाद एक आध दिन भी मुश्किल से टिक पाती है। लम्बे समय तक, उसे अच्छे भाव से बेचने के विचार से रोक कर रखा नहीं जा सकता। उसे तुरन्त बेचकर उससे जो मिले, प्राप्त करना ही उचित रहता है, अन्यथा यह सड़ गल कर अपने मालिक के जी का जंजाल बन जाती है और आर्थिक दृष्टि से उसे दिवालिया कर देती है।
इस बात को ध्यान में रखकर आप जरा सोचिये कि साग-सब्जी उत्पादक सैंकड़ों हजारों माली परिवार यदि एक ही जगह पर बसकर अपना धंधा करते तो उनकी उपज को खरीदने वाला कौन मिलता? उस जमाने में आज की तरह लाखों की आबादी के शहर तो होते नहीं थी, जिनके सहारे सैंकड़ों हजारों माली अपनी गुजर-बसर ठीक से कर पाते और न ही आवागमन अथवा यातायात के इतने अधिक साधन ही होते थे जिनसे कि एक जगह की उपज को आज तरह दूर-दूर तक पहूचाया जा सकता था। इसलिए सबसे अच्छा तरीका यहीं हो सकता था कि साग-सब्जी उत्पादक माली परिवार अलग-अलग गांवों व कस्बों में दूर-दूर बसें और अपनी आजीविका ठीक से चलाने में सफल हो सकें एवं फल-फूल सकें।
मुहावरे में इस विवेकपूर्ण व्यावहारिक तथ्य को मूळे के साथ इसलिए जोड़ दिया गया कि मूळे को स्वाभाविक रूप में फूलने के लिए पर्याप्त जगह की जरूरत होती है। एक मूळे की दूसरे मूळे से कुछ दूरी रखना उसके विकास के लिए आवश्यक होता है। इससे उन सबकी जड़ें सही आकार की तथा मोटी हो सकती है क्योंकि उन्हें धरती से पर्याप्त खाद और पानी मिल जाता है।
इन दोनों व्यावहारिक तथ्यों को जोड़कर किसी ज्ञानी-ध्यानी ओर समाज के शुभचिंतक ने यह मुहावरा घड़ा दिया और लोगों ने उसे प्रचलित कर दिया।
उसका सही अर्थ न लगाकर लोग अनर्थ करते हुए समाज के शानदार चरित्र को बदनामी की ओर जाने की कार्यवाही अपनी अज्ञानता से करते आये है और आज भी कर रहे हैं।
अतः समाज के विवेकशील एवं जनहितेशी भाई-बहनों से लोगों को इसका सही अर्थ समझाने का निवेदन है ताकि संगठन में आने वाली बाधाओं को समाप्त किया जास कि और भविष्य में समाज के लोगों के मन में समाज के प्रति फैलने वाली भ्रान्तियों को रोका जा सके तथा समाज का उत्थान किया जा सके।