माली जाति में जागरण
अठारहवीं शती के मध्य में बंगाल में अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई। शनैःशनै सम्पूर्ण देश दासता के बन्धन में बंध गया। हम पुनः 190 वर्ष के पश्चात् स्वतन्त्र हुए परन्तु इन 190 वर्षों में देश के धार्मिक, राजनैतिक, सामातिक, साहित्यिक, बौद्धिक, वैाानिक व आर्थिक आदि क्षेत्रों में असाधारण जागरण और उन्नति हुई। देश की उन्नति के साथ-साथ स्वजाति ने भी करवट ली।
आधुनिक भारत में सर्वप्रथम नए युग का प्रकाश धार्मिक आन्दोलनों में प्रकट हुआ। हम भारतवासी 19वीं सदी के आरम्भ में अन्धविश्वासों और भ्रांत विचारों के मोह जाल में फँसे हुए थे। ऐसे समय में पश्चिमी शिक्षा के प्रचार ने हमारी पराधीनता की पीड़ा को कचोटा। जिसके फलस्वरूप ‘बह्म समाज’ (1828 ई.) ‘आर्य समाज’ (1875 ई.) ‘थियोसफी’ (1886 ई.) तथा रामकृष्ण मिशन आन्दोलन (1894 ई.) की स्थापना हुई। आर्यसमाज का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब में पड़ा। मूर्तिपूजा का खण्डन करते हुए हिन्दु धर्म का मूल आधार वेदों को ठहराया गया। सामाजिक क्षेत्र में आर्यसमाज ने जातिभेद, अस्पृश्यता, बालविवाह, बहुविवाह की भंयकर कुरीतियों के उन्मूलन का यत्न किया। स्त्रीशिक्षा पर जोर दिया गया। शिक्षा के प्रसतर पर कॉलेजों तथा गुरूकुलों की स्थापना हुई। आर्यसमाज का प्रभाव जहाँ पंजाब के सैनियों पर पड़ा- वैसे ही 1883 ई. में स्वयं ऋषि दयानन्द के जोधपुर आगमन से जोधपुर की माली जाति पर पड़ा। जोधपुर में आर्यसमाज की स्थापना (1885ई.) का श्रेय स्व. लक्ष्मणजी परिहार आर्य को है। मंडोर के स्वजातीय बन्धुओं ने सामुहिक रूप से सूचना प्रकाशित करके वैदिक धर्म को अंगीकार किया।
आर्यसमाज के प्रभाव में वृद्धि के साथ-साथ सामाजिक सुधारों में भी वृद्धि हुई। जोधपुर में 1898 ई. में ‘माली मित्र मण्डल’ तथा 1901 ई. में ‘माली महोदय सभा’ की स्थापना हुई। ‘माली मित्र मण्डल’ ने भारतवर्ष में माली जाति के सर्वप्रथम विद्यालय श्री सुमेर सैनी स्कूल की स्थापना 1898 ई. में की। मारवाड़ राज्य की जनगणना में स्वजाति को ‘राजपूत हितकारी फंड’ की स्थापना हुई। मारवाड़ राज्य की जनगणना में स्वजाति को राजपूत माली लिखे जाने से एक नई चेतना पनपी। बम्बई में श्री सांवता माली सेवक समाज’ की तथा पूना में ‘क्षत्रिय माली शिक्षण परिषद’ की स्थापना 1909 ई. में हुई जिसके फलस्वरूप सुधारों की बाढ़ सी आ गई।
1891 ई. में मंडोर व जोधपुर में सभाएं कर रीत-रस्मों में सुधार किए गए। माली जाति के रीत-रस्मों पर सर्वप्रथम पुस्तक ‘सैनीजाति के रीतिरस्म’ का 1922 ई. में जगदीशसिंह गहलोत द्वारा प्रकाशन हुआ। जयपुर, कोटा, मध्य भारत आदि में भी समय-समय पर सुधारों के लिए उनके द्वारा सभाएं की गई। मध्यप्रदेश में सर्वश्री मोतीराम तुकाराम वानखड़े ने ‘सत्यशोधक’ समाज की स्थापना की। दक्षिण में ब्राह्माणों का प्रभाव था जिससे स्त्रियां विद्यासभा से वंचित थी। अबोध बालायें देवदासियां बना ली जाती थी। इस प्रकार के वातावरण में महात्मा ज्योतिराव फूले (1827 ई.-1890 ई.) ने पूना में समाजसुधार की ओर ध्यान दिया। उन्होंने सन् 1848 ई. में अछूतों के लिए तथा सन् 1851 में महाराष्ट्र के कन्या-शिक्षा हेतु प्रथम कन्या पाठशाला की स्थापना की। उन्होंने एक सारस्वत ब्राह्माण के यहाँ विधवाविवाह कराया तथा न्यायमूर्ति महादेव रानाडे को ‘बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह’ और ‘अनाथ बालकाश्रम’ की स्थापना में योग दिया। 1873 ई. में ही पूना में‘सत्य शोधक समाज’ की फुलेजी ने स्थापना कर दी। मध्य भारत ओर महाराष्ट्र में जगह-जगह पर समाज की शाखाएं स्थापित की गई। महात्मा फुले ने प्रिंस ऑफ वेल्स से मिलकर समाज के पिछड़े वर्ग की दिशा से उन्हें अवगत कराया।
राजपूतों में सतीप्रथा थी। राजमोहनराय के प्रयत्नों से इस प्रथा पर रोक लगा दी गई थी। जोधपुर व बीकानेर में माली जाति की कई सतियों के चित्ता आज भी विद्यमान हैं। उनमें नेतरायत के राजपूतों की भाँति पुनर्विवाह प्रचलित था। दक्षिण में इससे विधवाविवाह की समस्या अवश्य विषम हो गई, परन्तु ‘‘सत्य शोधक समाज’ ‘ के प्रयत्नों से वहाँ भी विधवाविवाह का प्रचलन हो गया। शिक्षा के प्रसार से बालविवाह की बुराई नगरों में घट रही है, परन्तु ग्रामों में अब भी बालविवाह होते रहते हैं।
हरजनोद्धार के साथ-साथ शूद्रों के लिए भी पूना के ‘सत्य शोधक समाज’ ने बहुत कार्य किया। हाल ही में तलाक प्राप्त मुस्लिम औरतों की दशा पर समस्त देश का ध्यान आकर्षित हुआ है।
पिछली सदी में स्त्रियों की दशा भी अत्यन्त शोचनीय थी। स्त्री समाज शिक्षा से वंचित था। पर्दाप्रथा का बोलबाला था। पुरूषों की अपेक्षा उनके दाम्पत्य एवं सामपतिक अधिकार नाममात्र को ही थे। पिछले पचास वर्षों में इस स्थिति में परिवर्तन आ गया है। राजस्थान व उत्तरी भारत में माली जाति की कई स्कूलें लड़कियों के लिए भी खोली गई हैं।1923 ई. में मंडोर में तथा 1935 ई. में जोधपुर में माली जाति की कन्या पाठशालाओं की स्थापना हुई थी। आज अकेले जोधपुर में माली जाति की पांच कन्या पाठशालाएँ कार्य कर रही हैं। आजकल शिक्षा का प्रसार इतना अधिक हो चुका है कि उत्तरी भारत, राजस्थान व दक्षिण में माली जाति की कई महिलायें डॉक्टर व लेक्चरार हैं। राजस्थान में तो सर्वप्रथम महिला डॉक्टर बनने का सौभाग्य डॉ. पार्वती गहलोत जोधपुर को प्राप्त है। रोहतक में श्रीमति देवराज सैनी सब-जज हैं। दिल्ली की प्रसिद्ध समाजसेवी महिला कुमारी सुरेन्द्र सैनी वहाँ के नगर निगम की वरिष्ठ अधिकारी रही हैं तथा पदमभूषण से भी अलंकृत हो चुकी हैं। कई अन्य महत्वपूर्ण पदों पर माली जाति की नारिएँ कार्य कर रही है। वे विदेशों में भी शिक्षा पा रही हैं। यही नहीं, स्वतंत्रता आंदोलन में भी माली जाति की नारियों ने भाग लिया था। सन् 1931 ई. में महाराष्ट्र की सांई बाई बरहड़ी भी गिरफ्तार हुई थी।
आधुनिक काल में धर्मिक एवं सामाजिक जागृति के साथ साहित्यिक जागृति भी हुई। अग्रेजों द्वारा संस्कृत के अध्ययन से व अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार और छापाखाने के माध्यम से भारत का बौद्धिक जागरण हुआ।
इतिहासकार के रूप में जगदीशसिंह गहलोत (जोधपुर) का नाम सर्वविदित है। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग कके अध्यक्ष डॉ. सूर्यकान्त रहे हैं। वैसे सर्वत्र लेखक और कवि तो कई हैं। समस्त भारत वर्ष में शिकार-साहित्य पर हिन्दी में केवल चार या पांच लेखकों ने ही कलम उठाई हैं। उनमें उदयपुर के धाय भाई तुलसीनाथ तंवर का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
शिक्षा के प्रसार ने देश के कोने-कोने में फैली हुई माली जाति को भी जगह-जगह विद्यालय आदि स्थापित करने की प्रेरणा दी। उसने इस जाति को एकसूत्र ही में बाँधने की ओर भी अग्रसर किया। इसके लिए अखिल भारतीय स्तर पर कई संस्थाओं की समय-समय पर स्थापना हुई। देश के कोने-कोने में सम्मेलन हुए तथा एक दूसरे को पहचानने व समझने का प्रयास किया गया। इसी प्रकार देश के विभिन्न भागों में स्वजातीय पत्र व पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता रहा। आज भी कई पत्र व पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं। देश की जनगणना में 1921 ई. में समस्त समाज को एक ही नाम ‘सैनिक क्षत्रिय’ के अन्तर्गत लाने का सफस प्रयास भी हुआ। राजस्थान सरीखे प्रदेश में पहले माली जाति के बन्धु अपने नाम के पीछे ‘सिंह’ तक नहीं लिख सकते थे। सर्वप्रथम जोधपुर के स्व. छगजीसिंह कछवाहा व बाद में स्व. मोतीसिंह सांखला द्वारा ‘सिंह’ का प्रयोग करने पर राज्य न्यायालय में उन पर मुकदमें चलें।
आध्यात्मिक क्षेत्र में भी माली जाति के कई संत हो गये हैं। महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले, नागौर (राजस्थान) में लिखमोजी, जोधपुर में स्व. महात्मा देवीदान व स्व. महात्मा अचलराम कच्छवाहा ओर दिल्ली में स्व. महात्मा गगनसिंह सैनी, अजनेश्वरी (जोधपुर) आदि के नाम आज भी लाखों स्वजाति व अन्य जाति बन्धुओं के मानस पटल पर आज भी अंकित है।
इस जागरण युग के प्रभाव से स्वजाति के कई रत्नों ने स्वातन्त्र्य संग्राम में भी खुलकर भाग लिया। सन् 1931 ई. में मेमन मौहल्लों में प्रदर्शन करने पर जेल जाने का सौभाग्य माली जाति की महिला सांईबाई बारहड़ी को मिला। जोधपुर में किसान सभा की स्थापना हुई जिसके मन्त्री स्व. बालकृष्ण कच्छवाहा नरसिंह कच्छवाहा को गंभीर चोटें आई। अक्षयसिंह कच्छवाहा को 15 सितम्बर 1942 ई. में भारतक्षाकानून के अन्तर्गत पकड़ा गया। स्वतन्त्रताप्राप्ति के पश्चात् से लेकर अब तक समय समय पर संसद व राजकीय विधानसभाओं में स्वजाति के कई बंधु सदस्य रह चुके हैं। सर्वश्री नरसिंह कच्छवाहा शास्त्री सरकार व व्यास सरकार के मंत्रीमण्डलों में भी रहे थे। केन्द्र में श्री अशोक गहलोत मंत्री पद पर रहे है और वह राजस्थान में मुख्यमंत्री पद को सुशोभित भी किया हैं। गुजरात में भी स्वायत्त शासनमंत्री आदि के पद माली जाति बंधु संभाल चुके हैं। जोधपुर व बीकानेर की जिला कांग्रेसों के अध्यक्ष पद को तो स्वजाति के रत्नों ने कई बार अलंकृत किया है। देश की नगरपालिकाओं में विशेषकर बीकानेर, जोधपुर, ब्यावर, जयपुर, पाली, दिल्ली प्रदेश आदि की नगरपालिकाओं या परिषदों या नगर निगमों में तो कोई भी चुनाव ऐसा नहीं रहा जब माली जाति के बन्धुओं ने वहां प्रतिनिधित्व न किया हो। इन परिषदों के अध्यक्षपद को भी कई बार सैनी बन्धुओं ने सुशोभित किया हैं। बंगाल में महात्मा गांधी के अहिंसक सअवज्ञा आंदोलन का सर्वप्रथम सूत्रपात प्रख्यात बैरिस्टर देशप्राण सासमल (महिष्य जाति की एक शाखा) ने सन् 1921 ई. में ‘कर नहीं’ आंदोलन करके दिया तथा कई वर्ष अंग्रेजी सरकार की जेलों में बितायें।
इसी भारतीय जागरण का प्रभाव हमारे जीवनयापन के क्षेत्र पर भी पड़ा। गाँवों से लोग शहरों की ओर आने लगे। परम्परागत प्रचलित व्यवसाय व उद्योगों का स्थान नए व्यवसायों ने ले लिया। हालाँकि कृषि के क्षेत्र में आज भी हमारी माली जाति का प्रमुख भाग संलग्न है तथा वहाँ व्यापार में भी स्वजाति बहुत बढ़ गई हैं। राजस्थान व विशेष कर जोधपुर में यातायात, मोटर उद्योग, पत्थर उद्योग में हमारा प्रमुख उद्योग हो गया है। ललितकला व वास्तुकला में ,भवननिर्माण के लिए इन्जिनियर, ओवरसियर, ठेकेदार, शिक्षणसंस्थानों, न्यायालयों के वरिष्ठ पदो पर स्वजाति के सैकड़ों रत्न लगे है।
जोधपुर का घंटाघर, उच्च न्यायालय भवन, जसवन्त स्मृति भवन, चैपासनी, तख्तसागर व प्रताप सागर के बांध, रेल्वे स्टेशन, इंजिनियरिंग कालेज, उम्मेद अस्पताल, अरावली की श्रेणियों को पार करने वाली रेल्वे लाइन और बीकानेर की गंगनहर आज भी स्वजाति के ठेकेदारों का स्मरण करा रही हैं।
चित्रकला के क्षेत्र में जोधपुर के डॉ. स्व. गोविन्दसिंह गहलोत व रणधीर सिंह कछवाहा तथा जयपुर के ज्योतिस्वरूप कच्छवाहा का उल्लेख किया जा सकता है। वहाँ नृत्य में जोधपुर की शशि सांखला ने राजस्थान में काफी ख्याति अर्जित की है।
सरकारी क्षेत्र में भी देश के विभिन्न भागों में न जाने कितने ही सैनी अध्यापक, प्राध्यापक व रीडर आदि हैं। मुख्य अभियन्ता, विद्युतविभाग हो या रेल्वे, सब जगह कई उच्च पदो पर सैनी समाज के व्यक्ति लगे हुए हैं। दिल्ली, पंजाब, ग्वालियर व जयपुर में कई स्वजाति बन्धू पुलिस में अधीक्षक व उपअधीक्षक आदि पदों पर रह चुके हैं। लेकिन कुछ नामों का उल्लेख किय वगैर नहीं रहा जाता। जैसे जोधपुर के स्व. कैलाशसिंह सांखला (बाघ बचाओं अभियान के निर्देशक व नेहरू फेलोशिप पाने वाले प्रथम स्वजाति बंधु) जिन्होंने अंग्रेजों में बाघ पर एक अति सुन्दर चित्रमय पुस्तक भी लिखी है, स्व. रणजितसिंह कछवाहा (हिन्दुस्थान कारपोरेशन) दलीपसिंह कछवाहा (भारत स्टील) बलवीर सिंह कछवाहा (हिन्दुस्थान जिंक लिमिटेड) विजयसिंह कछवाहा (योजना विभाग) तथा श्री कानसिंह परिहार (राजस्थान उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश) आदि उनमें प्रमुख है। भारत एक विशाल देश है जिसमें न जाने और कितने ही माली सज्जन देशसेवा व देशनिर्माण में लगे हुए हैं।
आमोद-प्रमोद के क्षेत्र में भी हम पीछे नहीं रहे हैं। सिनेमा भावनों का संचालन हो या शिकार, खेल या खिलाड़ी, सर्वत्र हमें सफलता मिली है। जोधपुर के आनन्द सिनेमा का संचालन मुख्यतया स्वजाति के गण्यमान्य व्यक्तियों के हाथों में है। शिकार के क्षेत्र में उदयपुर के स्वत्र धायभाई अमरसिंह तंवर व तुलसीनाथ तंवर का नाम अति प्रसिद्ध है। विश्वविजयी भारतीय हॉकी टीम में दिल्ली के रणवीर सिंह सैनी ने हेलेसिंकी व मेलबोर्न ओलम्पिक ने अपने करतब दिखाए हैं। थाईलैण्ड में हुए एशिया खेलकुद प्रतियोगिता में पाकिस्तान को हराने वाली भारतीय हाकी टीम के प्रशिक्षक भी आप ही थे। संसार का हॉकी क्षेत्र उन्हें आर.एस. जेन्टल के नाम से सर्वत्र जानता है। जादूगरी के क्षेत्र में स्व. लक्ष्मणसिंह गहलोत ने जापान के टेलीविजन पर अपने करतब दिखलाये थे।
युद्ध क्षेत्र में भी हमें पीछें नहीं रहे। प्रथम व द्वितीय महायुद्ध में उत्तरी भारत से सैन्य सेवा के लिए कई सैनी कम्पनियाँ थी। जिनमें अधिकतर वे सैनी थे जो सिख हो गये थे। कई वीर योद्धाओं को सेना के विशिष्ठ अलंकार मिले थे जिमें रूपड़ के सूबेदार जोगेन्द्रसिंह को बेल्जियम के युद्ध में आक्रमणात्मक नेतृत्व करने के कारण ‘सैंकिड क्लास ऑफ मेरिट’ और ‘सैंकिड क्लास ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’ के पदक प्राप्त हुए थे। दक्षिण के मेजर परमेन्द्रसिंह भगत को ‘विक्टोरिया क्राँस’ पदक भी मिला था। स्वतन्त्रा प्राप्ति के बाद स्थलवायुसेना में स्वाजाति क अनके तरूण भर्ती हुए। हाल ही में हुए भारत पाक संघर्ष में उन्होंने स्यालकोट क्षेत्र में भाग लिया था।
हमारा जागरण अब भी चालू है। अब शिक्षित वर्ग द्वारा जामीय समाज पर पहले सा ध्यान नहीं दिया जाता हैं। जहाँ सन् 1891 ई. में जोधपुर में स्वीकृत हुए रीति-रस्मों के अनुसार सवजाति के भोज में अन्य जातीय व्यक्ति को अपने समाज में ही एक ही पंक्ति में नहीं बिठाते थे, वहाँ आज होटलों, रेलों के प्रचार ने एक ही बर्तन में ही खाना संभव बना दिया है। कई युवक व युवतियों का अन्य समाज की युवतियों व युवकों से वैवाहिक सम्बन्ध भी हुआ है। जातिभेद की श्रृंखलाएँ शिक्षा, व्यक्ति स्वातन्त्र्य, समानता की विचारधारा व आधुनिक आर्थिक परिस्थितियों से टूट रही है। इससे हमें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है हाँ, एक ही सांस्कृतिक इकाई के रूप को बनाये रखना आवश्यक है ताकि विविधता में भी एकता को, अक्षुण्ण बनाये रखा जा सके।