आजादी के पूर्व व पश्चात् जोधपुर का माली (सैनी) समाज
जोधपुर के माली (सैनी) समाज का परिचय जानने के लिये यह परमावश्यक है कि हम एक नजर उसके इतिहास पर भी डालें। किसी भी समाज के अभ्युदय की जननी उसका इतिहास होता है। वर्तमान में हम जिस समाज में श्वास ले रहे हैं, उस समाज के बीज का प्रस्फुटन 13 वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ, जो आज एक विशाल वट वृक्ष बन कर, माली (सैनी) समाज को अपनी छाया से समृद्ध कर रहा है।
यदि हम माली सैनी समाज के इतिहास का गहन अध्ययन करे तो हमें ज्ञात होगा कि इसका उद्भव अत्यंत ही संघर्षपूर्ण परिस्थितियों से गुजरते हुए रोचक एवं रहस्यपूर्ण रहा है। इस जाति के इतिहास को कभी ग्रंथरूप में परिणत नही किया गया अतः यत्र-तत्र बिखरे हुए संदर्भों को एकत्र करने पर पायेंगे कि, इस समाज को उज्ज्वल दर्पण का रूप प्रदान करने के लिये हजारों महापुरूषों एवं वीरांगनाओं को अपने प्राण न्यौछावर करने पड़े। उन महायोद्धाओं का समपर्ण हमें आज भी गौरवान्वित कर रहा है।
यदि हम मानव-जाति की उत्पति के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें ज्ञात होगा कि प्राचीनकाल में सरस्वती नदी के किनारे आर्य-सभ्यता का उद्भव एवं वेदों की रचना हुई। जिसके अनुसार मानव जाति को गुण व कर्मों के अनुसार चार वर्णों में बांटा गया था। वे हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। श्रीमद् भगवद्गीता में भी चार वर्णों का वर्णन किया गया है। इन चार वर्णों के कत्र्तव्य-धर्मानुसार सांसारिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है।
इतिहास के पठन से यह भी परिलक्षित हुआ कि आर्यो के क्षत्रिय वर्ण में सूर्यवंशी अनेक शाखाओं व उपशाखाओं में विभक्त हो गये। इसी प्रकार ब्रह्माजी के आदिकालीन वंशज चद्रवंशी कहलाये। ये ही वंशज आगे चल कर यदुवंशी के रूप में कृष्ण हुये तथा पुरू के वंशज पौरव कहलाये, पौरव वंशीय राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम से हमारा देश भारत कहलाया। तत्कालीन समय में ऋषियों ने क्षत्रिय समाज के 36 कुलों को स्थापित कर नई परम्परा का प्रारम्भ किया। क्षत्रिय पहले राजपुत्र के नाम से सम्बोधित किये जाते थे, इससे पहले राजजन्य शब्द से जाने जाते थे लेकिन धीरे-धीरे राजपुत्र शब्द का अपभंश राजपूत प्रचलित हो गया। कालांतर में क्षत्रियों को विदेशी शक्तियों का सामना करते हुए हार कर सैन्य कर्म छोड़कर अन्य कर्म अपना कर अपनी आजीविका चलाने के लिये विवश होना पड़ा अतः उन्होंने जीवन यापन के लिये कृषि कार्य एवं बागवानी आदि कार्य अपनाये। ऐसे क्षत्रियों में गहलोत, परिहार, सोलंकी, कच्छवाहा, चौहान, भाटी, टाक, तंवर आदि कुल के लोग थे। जिनके कुद मुखियाओं ने आपस में मिल बैठकर, कुछ नियम सुनिश्चित किये। इस विषय पर एक बैठक का आयोजन अजमेर में पुष्कर नामक तीर्थ स्थान पर दिनांक 12.01.1201 शुक्रवार विक्रम सम्वत् 1257 की माघ शुक्ला सप्तमी को किया था। समाज की इस बैठक के विचार विमर्श का विवरण मारवाड़ राज्य की रिपोर्ट सन् 1891 में दिया गया है। इस मीटिंग के सभापति कुसमा पुत्र महादेव अजमेरा चौहान को बनाया गया था। जिन्होंने उस मिटिंग में क्षत्रिय समाज के लिये नियमित रीति-रिवाजों को निश्चितता प्रदान की।
जोधपुर राज्य की जनगणना के पठन से यह विदित होता है कि संवत 1256 में मुगल बादशाह कुतुबुद्दीन अजमेर की ओर आया, तभी उसके साथ में विभिन्न प्रदेशों से आये सैनिक अपनी जान बचाने के लिये इधर-उधर शरण लेने चले गये। ये लोग लड़ाई के पश्चात् मुसलमान धर्म अपनाने के भय से जहाँ कहीं भी शरण मिली, छुप ये तथा बाढ़ एवं अकाल जैसी आपदाओं से तथा फैली बीमारियों से बचने के लिये, जहाँ भी सुरक्षित स्थान होता, वहाँ बसेरा करने लगे। धीरे-धीरे ये सैनिक पहाड़ो की तराई व नदी-तालाबों के निकट बस कर खेती-बाड़ी, बागवानी एवं सब्जी व फल-फूल उगाने का कार्य अपना कर गुजारा करने लगे। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और ये अपने धंधे से अच्छी आमदनी प्राप्त करने के लिये शहर की ओर बाजार में अपने सामान को बेचने के लिये आने लगे। ये ही सैनिक आगे चलकर माली सैनी कहलाये जो कि राजस्थान के सभी शहरों व अन्य प्रदेशों में बस गये। अतः जो-जो वंश, खाँपे व गोत्र राजपूतों मेंहै वही सैनिक क्षत्रियों में भी हैं जैसे गहलोत, कच्छवाहा, परिहार, सोलंकी, पँवार, साँखला, तंवर, चौहान, देवड़ा, भाटी, टाक, राठौड़ व दहिया आदि। ये सब एक ही जाति के है जो सैनिक क्षत्रिय (माली) नाम से जाने जाते हैं।
जोधपुर शहर व उसके आसपास के आठो खेड़ो व तीनों बस्तियों के समाज सुधार व विकास कार्य तथा विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा के प्रचार व प्रसार के कार्य पंचायत द्वारा ही किये जाते थे। इनमें निम्न खेड़े व बस्तियाँ आती है :
- मण्डोर
- चैनपुरा
- पूँजला (मगरा)
- बासनी
- चौखा
- गोलासनी
- सूरसागर
- गवां बांगो