महिला सन्त अजनेश्वर जी महाराज
भगवदृ् भक्ति में पुरुष और नारी का कोई भेद स्वीकार्य नहीं है। परमात्माक को प्राप्त करने के लिए भक्ति के मार्ग को सभी के लिये सुलभ तथा सुगम माना गया है। मीरा बाई, सहजो बाई, दया बाई आदि नारियाँ भक्तिपथ का अनुगमन कर सिद्धि प्राप्त करने में सफल हुई। दक्षिण भारत के आलवार भक्त कृष्णोपासक थे। इनमें आन्दाल नामक नारी भक्त मीरा की ही भाँति कृष्ण को अपना पति मानकर दाम्पत्य भाव से उपासना करती थी। सूफी सन्तों में भी नारियों को स्थान मिला था। उनसमें राबिया जैसी भक्त स्त्रियों का उल्लेख मिलता ही है। जोधुपर को भी एक ऐसी महिला सन्त को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिनके अनुयायियों की संख्या आज भी कम नहीं है और जो प्रतिदिन इस नारी सन्त द्वारा स्थापित आश्रम में नियमित रूप से जाकर भक्ति तथा भगवान के नामस्मरण द्वारा स्वजीवन का उत्थान करते हैं।
इस महिला सन्त का नाम अजनेश्वरी महाराज था, जिनके चित्र आज भी जोधपुर के सद्गृहस्थों के पूजाकक्षों में देवप्रतिमाओं की ही भाँति पूजे जाते हैं। सन्त अजनेश्वर का जन्म नाम अजनी बाई था। इनका जन्म वि. सं. 1908 (1851 ई.) की आश्विन कृष्ण एकादशी को जोधपुर के एक कच्छवाहा माली परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम श्रीराम तथा माता का नाम हरकू बाई था। पिता स्वयं भक्तिमार्ग के पथिक थे तथा वैराग्योन्मुख होने के कारण गृहत्यागी बन चुके थे। 1913 वि. के वैशाख मास में जब अजनी बाई 5 वर्ष की बालिका ही थी, उन्हें कबूतरों के चैक में स्थित एक मंदिर में परमात्मा के सर्वोन्कृष्ट नाम ‘ओम्’ की महिमा सुनने को मिली। पूर्वजन्म के संस्कारवश उनका चित्त भी भक्ति की ओर उन्मुख हो गया और वे नियमित रूप से नगर के मध्य में स्थित कुंजबिहारी जी के मंदिर में दर्शनार्थ जाने लगीं।
उन दिनों बालविवाह का प्रचलन था। अतः अजनी बाई का विवाह भी दस वर्ष की अल्पायु में रामबख्शजी के साथ कर दिया गया। संयोग ऐसा रहा कि जोधपुर के ही सिद्धं सन्त महात्मा देवीदान जी इनके बड़े भाई थे। विवाह तो एक लौकिक बंधन था जिसे अजनी बाई ने मीरां तथा आन्दाल की भाँति स्वीकार ही नहीं किया। इसी बीच उनके पिता श्रीराम जी ने भा संन्यास धारण कर लिया। विवाह के एक वर्ष पश्चात् ग्यारह वर्ष की आयु मेंअजनी बाई भी गृहस्थ को त्याग कर वैराग्यपथ की पथिक बन गई। उन्होंने अपने पिता तथा गुरु से ओंकार का मंत्र गुरुमंत्र के रूप में मिला। जिसे उन्होंने आजीवन धारण किया तथा अपने शिष्यों को भी इसी एकाक्षर मंत्र का उपदेश दिया। संन्यास की दीक्षा लेने के पश्चात् उन्होंने द्वारिका, पुरी तथा रामेश्वर की सुविस्तृत यात्राएँ की तथा सत्संग का लाभ उठाया।
उपर्युक्त यात्रा में उन्हें तीन वर्ष लगे। नगर में लौटकर उन्होंने सुखानन्द की बगेची को अपना साधना-स्थल बनाया और वह त्याग, तप तथा द्वन्द्वसहन आदि के द्वारा जीवन परिष्कार में लग गई। विद्याध्ययन के साथ-साथ हठयोग की साधना में भी वे प्रवृत्त हुई तथा राजयोग के साधनों के द्वारा समाधि की स्थिति तक पहुंच गई। इस स्थान में रहते हुए वे अत्यन्त अल्प आहार लेतीं और दीर्घकाल के लिये मौन व्रत धारण कर उन्होंने समाधि को सिद्ध किया। ज्यों-ज्यों अजनेश्वर जी की ख्याति बढ़ती गई, लोगो का उनके स्थान पर आवागमन बढ़ने लगा। जब भक्तजनों का आना-जाना अधिक बढ़ा तो इसे भजन में बाधक समझकर वे फतह बुर्ज में चली गई जो आज एक पहाड़ी के शिख पर बाईजी महाराज के आश्रम के नाम से जाना जाता है। यह सुविस्तृत और भव्य आश्रम सिवांची दरवाजे से चांदपोल की ओर जाने वाले मुख्य राजमार्ग के बांयी ओर की एक छोटी पहाड़ी पर अवस्थित है जहां साधकों के निवास के लिये कुटियायें, प्रार्थनास्थल, पाकशाला आदि अनेक स्थानों का निर्माण विगत वर्षो में हुआ है। इस स्थान पर पहुँचकर सन्त अजनेश्वरजी ने एक पाट पर मृगछाला को अपना आसन तथा एक कम्बल को अपना वस्त्र बनाया।
सन्त अजनेश्वर जी ( जो जोधपुर वासियों में बाई जी महाराज के नाम से जाने जाते है ) की साधना का स्वरूप निर्गुण सन्तों की विचारधारा को ही लेकर चलता है। कालान्तर में अन्य मत तथा पंथों की भाँति उसमेंभी गुरु की स्थलपूजा, मूर्तिपूजा आदि तत्वों का समावेश हुआ। अजनेश्वरजी ने परमात्मा के मुख्य नाम ‘ओम्’ तथा उसके सच्चिदानन्द स्वरूप को ही मान्यता दी है। ओम् की महिमा शास्त्रों में सर्वत्र पाई जाती है। यजुर्वेद में उसे आकाश के तुल्य महान् तथा व्यापक बताया गया है। ‘ओम् एवं ब्रह्म’ को तो उपनिषदों ने उसे वेदों का चरण, वण्र्य विषय, तपस्वियों की तपस्या का लक्ष्य तथा ब्रह्मचर्यादि साधनों से प्राप्य कहा है। गीता ने उसे ‘एकाक्षर ब्रह्म’ कहा तो पातंजल योग में उसे प्रणव का नाम देकर अर्थचिन्तनपूर्वक उसका जप करने का उपदेश दिया है। ओम् के इसी शास्त्रवर्णित स्वरूप को हृदयंगम कर बाई जी महाराज ने इसकी महिमा को इस प्रकार बताया है –
ओमकार निज नाम है, सब नावों का मोड़।
ओम ओम हिरदे रटो, मिटे मन की खोड़।।
ओमकार को सिंवर ले, भज ले सांसो सांस।
भवजल की फांसी कटे, मिटे यम की त्रास।।
वे यह जानती है कि परमात्मा के नाम तो असंख्य हैं, किन्तु ओम् के महत्व को वे सर्वोपरि मानती हैं-
असंख्य नाम नारायण तिहरा, सब ही नाम मोंकू हैं प्यारा।
ओम् नाम की बलिहारी जाऊं, ओम नाम को शीश नवाऊं।।
सन्त साहित्य में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है। वहाँ गुरु और ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं किया जाता। अजनेश्वर जी की दृष्टि में भी गुरु सच्चिदानन्द स्वरूप हैं जिनके दर्शनों से त्रितापों का शमन होता है। उनके शब्दों में –
गुरु से गोविन्द मिले, बिन गुरु गोविन्द न पाय।
अनन्त जनम को बिछड़ियों, कहुं नहिं पाया ठांव।।
उन्होंने दृश्यमान संसार को नश्वर तथा क्षणभंगुर ठहराया। पानी के बुलबुले, ओस की बूंद तथा अंजलि के पानी की भाँति उसे नाशवान् बताया। वे मृत्यु को निश्चित मानती हैं और गीता की भाँति इस तथ्य में विश्वास करती हैं कि कोई किसी को न तो मारता हैं और न मारा जाता है – नायं हन्यति न हन्यते। बाईजी महाराज के वचन हैं-
मारिया किसी का ना मरे, करलो कोटि उपाय।
जब मृत्यु मारण आवसी, तब बचायों बचसी नाय।।
वे कथनी की अपेक्षा करनी में विश्वास रखती हैं –
करनी इमृत सारखी, कहनी विष की बेल।
जो कहणी रहसी हुवे, तो सुख सागर में खेल।।
सन्त अजनेश्वरजी ने ज्ञान और भक्ति में समन्वय माना है। वे नामस्मरण को अत्यधिक महतव देती हैं तथा इसे ही संसार सागर से पार जाने का उपाय मानती हैं।
ज्ञान, भक्ति और वैराग्य को वे साधक के लिये आवश्यक समझती हैं-
हरि सिंवरण में चि दिसत्त रेवो, आलस नींद निवार।
ज्ञान भक्ति वैराग्य में, सन्तों रहो होशियार।।
भक्ति मार्ग में उन्हें महर्षि नारद तथा शाण्डिल्य कथित भक्ति के नौ (नवधा भक्ति) का रूप स्वीकार हैं। इनमें भी वे नामस्मरण, कान्ताभावासक्ति, तथा आत्मनिवेदन को प्रधानता देती हैं। वे सन्त-समागम और सत्संगत द्वारा चरित्र को निर्मल बनाने की बात करती हैं तथा शील, सन्तोष, शुचिता, अपरिग्रह तथा दानवृति को आत्मा के उत्कर्ष का साधन स्वीकार करती हैं। उनकी दृष्टि में मानव जन्म सभी प्राणियों में उत्कृष्ट है क्योंकि मनुष्य को ही सत्, असत् और धर्म एवं अधर्म में विवेक करने की शक्ति प्राप्त है। वे कामिनी और कंचन को अध्यात्मसिद्धि में बाधक मानती हैं-
हाड मांस की कामनी, कंचन काच कथीर।
सन्तों इनके त्याग बिन, मिटे न भव की पीर।।
सन्त अजनेश्वर जी की शिक्षाओं को नगर के महिलावर्ग ने उन्मुक्त भाव से स्वीकार किया। विशेषतः सवर्ण हिन्दुओं की विधवाओं के लिये उनके उपदेश जीवन को सदाचारयुक्त, चरित्रनिर्माण से सम्पन्न तथा मर्यादा-पालन में सहायक हुए। इंद्रिय संयम, शीलसंयम, त्यागमय तथा संतोषयुक्त जीवन जीने की प्रेरणा इन उपदेशों से सन्नारियों तथा सद्गृहस्थों को मिली। यही कारण है कि सन्त अजनेश्वर जी के समाधि लाभ करने के पश्चात् भी उनके आश्रम का गौरव यथावत् रहा तथा उनके अनुयायी शिष्यवर्ग ने अजनेश्वर धाम को भक्ति, उपासना तथा साधना का एक केन्द्रस्थल बना दिया। वि.सं. 1984 की श्रावण सुदी 14 को सन्त अजनेश्वरजी का निधन हुआ। आज भी जोधपुर तथा समीपवर्ती क्षेत्र के असंख्य नर-नारी इस महिला सन्त का स्मरण भक्तिपूर्वक करते हैं।