सामाजिक रस्मों रिवाज
सभ्यता के आगमन से ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी बनकर जीता चला आया है। देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार मानवसमाज अपनी सुविधा, ढंग और जीवनयापन के समाज के विभिन्न स्वरूपों में मुखरित होता चला आया है। प्रत्येक समाज की जीवन जीने का ढंग कुछ विभिन्नता लिये हुए अपने तरीकों से चलता रहा है। यही जीवन सतत गतिशील बनकर कालान्तर में सामाजिक संस्कार का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। विभिन्न समाजों के अंतर्गत रहने वाले विभिन्न जन-समूह अपने-अपने संस्कारों के अनुसार विभिन्न जीवन-शैलियां अपनाते चले गये जो समाजविशेष के रस्मों-रिवाज कहलाये। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की कार्यविधियाँ ही एक तरह से गतिशील होकर रस्मों-रिवाज बनीं और उनहीं के आधार पर समाज का युगयुगीन सफर चलता रहा।
विश्वइतिहास के पनने उलटते समय हमारी दृष्टि हिन्दूसमाज पर आ कर टिकती हैं। हिन्दूसमाज और संस्कृति भी प्राचीन मान्यता प्राप्त रहीं है जिसमें अनेक वर्ग अन्यान्य जीवन शैलियों, धर्मों, भाषाओं, संस्कारों तथा परम्पराओं को चलाते चले आये। इन रस्मों-रिवाजों पर विस्तार से गहन अध्ययन करना तो एक बहुत बड़ा विषय है जिसे मात्र एक लेख में सीमाबद्ध करना असम्भव है। आज हम उन रस्मों-रिवाजों पर एक सरसरी दृष्टि डालेंगे जो जातीय समाज से सम्बन्धित है और वर्तमान में समाज को जकड़े हुए हैं।
प्रायः अपने प्रचलित रस्मों-रिवाजों को हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं-
- धार्मिक
- सामाजिक
- सांस्कृतिक
- वंशानुगत
इन चारों क्षेत्र विभाजन के अंतर्गत ही हमारे समस्त रस्मों-रिवाज प्रचलित हैं। हमारे रस्मों-रिवाज की कुछ ऐसे नियम और परम्पराएँ है जिन्हें हमने ही बनाया है और जो परिवर्तनशील है। किन्तु अपनी मानसिक कमजोरी, रूढ़िवादिता तथा विशेष व्यामोंह के कारण देश, काल और परिस्थितियों के विपरीत कभी-कभी वे समाज के लिये गले की फांस भी बनकर रह जाते हैं। समकालीन आबोहवा के विपरीत होने पर भी वे हमारे समाज के साथ लिपटे रह जाते है जो कालान्तर में दुःखदायी और अनुपयुक्त हो जाते हैं। हमारे समाज में ऐसी ही बहुत सारी कुरीतियाँ अपना स्थायी घर बनाकर बैठी हुई हैं जिन्हें दूर कर हम आगे के लिये एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते है।
धार्मिक रस्मों-रिवाज- हमारे समाज के धर्म एक अफीम का नशा बनकर रह गया है। धर्म की असलियत जोन बिना हम धर्म को आडम्बरों और छलावों के रूप में इस्तेमाल करते चले आये है। हमारा दुर्भाग्य रहा कि हमने एक वर्ग विशेष को अपने धर्म का ठेकेदार बना दिया जो अपने स्वार्थ हेतु हमारे धर्म की वास्तविकता को अपने स्वार्थ और भलाई के लिये प्रयुक्त करते हुए चलते रहे और हम अन्धविश्वासी बनकर अपने धर्म के मूल तत्वों से बिछुड़तें गये। दीर्घकालीन सामाजिक प्राणियों ने हमारे समाज में अनेक विसंगतियों को जन्म दिया और वे इस समाज की विकासशीलता को पंगु बनाती चली गई। कृत्रिम वेशभूषा, आडम्बरीय पूजापाठ, तिलक मुद्रा, दिखावटी कर्मकाण्ड आदि ने धर्म की असलियत को एक नकली स्वरूप दे दिया जिसको हम आज तक अपनाते जा रहे हैं और इस तरह अपने सामाजिक विकास को अवरूद्ध करते चले जा रहे हैं।
हमें इस स्वरूप को बदलना होगा और समाज के विकास को एक ही सही दिशा प्रदान करनी होगी। हमें अपने प्राचीन दृष्टिकोणों को परवर्तित व परिवर्द्धित कर वैज्ञानिक और समयोचित दृष्टिकोण अपनाना होगा ताकि हम चलते चे आये और विसंगतियों से छुटकारा पा सकें।
सामाजिक रस्मों-रिवाज- हमारा समाज लचकदार नहीं रहा है। हमारी प्रवृतियां मूलतः रूढ़िवादी रही हैं। हम परम्पराओं से अधिक प्यार करते रहे हैं और देश, काल तथा परिस्थितियों के मुताबिक अपने रस्मों-रिवाज के अपेक्षाकृत परिवर्तनशील नहीं बना सके है। इसी दूषित मनोवृत्ति के कारण हम समय के साथ कदम नहीं मिला सके। हमारे लिए कल का अमृत आज का विष बन चुका है किन्तु हम शरबत की तरह उस हलाहल को पीते जा रहे हैं। दान-दहेज, महिलाओं की अशिक्षा, स्त्रीवर्ग को समाज अधिकार से वंचित रखना, अशिक्षा, ग्रामीण निर्धनता, अवैज्ञानिक दृष्टिकोण, जीवन के साथ सादेपन का बन्धन, जरदा, शराब और पाश्चात्य सभ्यता का अन्धाधुंध अनुकरण तथा दैनिक ओर सामाजिक कार्यक्रमों में अत्यधिक अनर्गल खर्च आदि-आदि अनेक सामाजिक बुराईयाँ हमारे समाज में आज तक टांग तोड़कर बैठी हुई हैं।
हमारी सामाजिक जागरूकता स्थिर और जड़वत् हो गई है। हम सही मायने में सचेतन और प्रगतिशील नहीं बन सके। विवाह – शादी जैसे जीवन के साधारण कार्यक्रमों में हम अपनी गाढ़ी कमाई को व्यर्थ बहाते और लुटाते रहे हैं। मुण्डन और जन्मदिन के समारोह को अनावश्यक विस्तार देकर हम अपना आर्थिक संतुलन बिगाड़ते रहे हैं। आवश्यकता से अधिक उत्साहित होकर समाज को अपने दिव्य स्वरूप का दिग्दर्शन कराने हेतु हम अपने जीवनस्तर को खर्चा उठाने के बजाय अपने पैसों को पानी की तरह बहाते चले जा रहे हैं। सामाजिक कार्यक्रमों की उपेक्षा कर व्यक्तिगत स्वार्थों को अधिक तरजीह देते चले जाना हमारी उन्नति का अवरोधक बन गया हैं। हमें उपर्युक्त कुरीतियों को दूर हटाना होगा। जो प्राचीन परम्पराएं आज के युग से मेल नहीं खातीं, उन्हें धीरे-धीरे प्रचलन से हटाते हुए अपने सामाजिक परिवश को बदलना हेागा और समयकालीन युग के मुताबिक समाज को नये सांचे में ढालना होगा।
सांस्कृतिक रस्मो-रिवाज- हमारे हिन्दूसमाज में त्यौहारों को विशेष महत्व दिया जाता रहा है। अवश्य ही त्यौहार जीवन को नवीन उत्साह और उत्कृष्टता प्रदान करते है किंतु जाने-अनजाने हमारे समाज में त्यौहारों की संख्या इतनी अधिक हो गई हैं कि लोग उनसे परेशान से रहते है तथापि कालान्तर से इनकी मान्यतायें चल रही हैं। कहावत है ‘आठ वार और नौ त्यौहार’ । त्यौहारों का खर्च ज्यादा ही होता है। आर्थिक दृष्टि से त्यौहारों की अधिकता हमें जर्जर बना रही है। अमीर हो या गरीब त्यौहारों की मान्यता देनी पड़ती है जिससे व्यक्ति असंतुलित होता रहता है। हमें कुछ सोच-समझकर इनको भी कुछ मर्यादित और सीमित करना होगा। हमारे समाज का स्त्रीवर्ग कुछ अधिक धर्मीभीरू और रस्मोरिवाज से लिप्त हो रहा है। उन्हें भी शिक्षित कर पुरानी मान्यताओं को संतुलित करना होगा ताकि जीवनरेखा को निर्विकार समतल बनाये रखा जा सके और अकारण अनावश्यक खर्चों से निवृत्ति पाई जा सके।
वंशानुगत परम्परायें- बहुत सी परम्परायें या रस्मो-रिवाज जातिगत या वंशा नुगत भी चलते चले आये हैं। जातियेां ओर प्रजातियों के अपने-अपने इतिहास है। इस तरह एक और भी अतिरिक्त बोझ सहन करते चलना पड़ता है। मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि संस्कारों और संस्कृतियों को मिटा दिया जाये किन्तु अब समय आ गया है कि हम उस पर नये सिरे से साचें और अव्यवहारिक पक्षों को हटा कर मात्र कारगर और सार्थक तत्वों को ही अपनाये रखें। अत्याधिक सांस्कृतिक होना भी एक किस्म की रूढ़िवादिता का ही द्योतक है।
इस तरह हम अपने रिवाज को समय की कसौटी पर कसकर उसे नया स्वरूप दे सकते है, जो अधिक वैज्ञानिक और अधिक सार्थक हो तथा हमारी आर्थिक परिशानियेां को दूर कर सके। युग के साथ कदमम से कदम मिलाकर चलना ही जीवन का मूल तत्व है।