वंश प्रवर्तक – महाराजा शूरसैनी
भारतभूमि महापुरूषों की भूमि रही है। यहाँ पर समय-समय पर अवतारों ने जन्म लेकर मानव समाज का कल्याण किया है। भटके हुए मानव को सही मार्ग दिखाया है। पुरातत्व विभाग की खोजों से यह साबित हो चुका है कि भारत की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता रही है। यहाँ की आर्य जाति ने ही विश्व का सभ्यता और संस्कृति का मार्ग दिखाया। रहन-सहन,शासन व्यवस्था, सामाजिक सम्बन्ध, पारिवारिक रिश्ते आदि सब कुछ आर्यों ने ही विश्व को सिखाया। बहुत पुराना इतिहास है इस देव भूमि का।
प्राचीन भारत में आर्यों के दो वंश प्रसिद्ध थे जो कि सूर्य वंश और चन्द्रवंश के नाम से जाने जाते हैं। सूर्य वंश में आदि मानव मनु हुए है और उनके वंशज एंव उत्तराधिकारी भरत, मानधाता, रघु, अज, दशरथ, राम, बुद्ध, अशोक आदि सम्राट हुए हैं। चन्द्र वंश में महर्षि अत्रि व सोम, पुरूरवा, नहुष, ययाति, विश्वामित्र, भीष्म, कार्तवीर्य अर्जुन, शूरसैन, दुष्यन्त, कृष्ण आदि सुप्रसिद्ध सम्राट हुए हैं। भारत का सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास इन्हीं दो क्षत्रिय वंशों के इर्द-गिर्द घूमता हैं। वेद पुराण कथा साहित्य इन्हीं की यश गाथाओं से भरे पड़े हैं। शूर सैनी क्षत्रिय वंश का उद्भव और विकास चन्द्रवंया के अन्तर्गत हुआ हैं।
महर्षि ययाति के वंशज कार्तवीर्य-अर्जुन हुए, जो कि एक सुप्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट थे। वे अपने समय के महान योद्धा, न्याय प्रिय राजा, राजनीति के मर्मज्ञ, कुशल व्यवस्थापक, पराक्रमी एवं सत्यप्रिय थे। पुराणों में उनके सौ पुत्रों का उल्लेख है। एक स्थान पर पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि किसी बात से रूष्ट होकर ऋषि आपव ने सम्राट कार्तवीर्य-अर्जुन को श्रााप दे दिया कि परशुराम के हाथों उन का वध होगा। इसी श्रााप के वशीभूत ऐसी स्थिति बनी की महाराजा कार्तवीर्य के पुत्र ने महर्षि जमदग्नि की कामधेनु गाय का बछड़ा चुरा लिया।
सम्राट कार्तवीर्य-अर्जुन को इस घटना की जानकारी नहीं थी। महर्षि जमदग्नि के पुत्र परशुराम को बछड़े के चोरी हो जाने का समाचार मिला तो वे आग बबूला हो गए और तुरंत सम्राट कार्तवीर्य के निवास पर पहुँचे। क्रोध के वशीभूत परशुराम ने सम्राट कार्तवीर्य की हत्या कर दी। अपने पिता की हत्या का समाचार सुनकर कार्तवीर्य के पुत्र महर्षि जगदग्नि के आश्रम पर पहुँचे और तुंरत महर्षि की हत्या कर दी। जब जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने अपने पिता की हत्या का समाचार सुना तो वह पूरे क्षत्रिय वंश को ही नष्ट करने के लिए निकल पड़ा। सबसे हले उसने सम्राट कार्तवीर्य के पुत्रों व पोत्रों का संहार किया। ऐसा उल्लेख है कि क्रोधी परायुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर दिया। लेकिन यह भी सत्य है कि पृथ्वी न कभी क्षत्रियों से विहीन हुई है और न ही कभी होगी। परशुराम द्वारा किए गए संसार के दौरान किसी तरह कार्तवीर्य अर्जुन क पांच पुत्र जीवित बच गए। जिनके नाम थे शूरसैनी, शूर, धृष्ट, कृष्ण और जयध्वज। ये पांच पुत्र जीवित बच गए। जिनके पराक्रमी और धर्मात्मा थे। शुरसैनी इनमें सबसे अधिक पराक्रमी एवं यशस्वी थें। महाराजा शूरसैनी को ही सैनीवंश का संस्थापक माना गया है। वह अपने समय के शूरवीर, पराक्रमी, धर्मात्मा व शास्त्रों के ज्ञाता थे। उस समय का कोई राजा उनकी समानता में नही ठहर सकता था। भारत का पूरा उत्तरी भाग, हिमालय से लेकर नर्मदा तक का विशाला भूभाग उस समय शूरसैन देश के नाम से जाना जाता था जिसकी राजधानी शौरिपुर थी, जो कि यमुना के तट पर विराजमान थी। इनके नाम से ही शूरसेन देश व शूरसैनी वंश तथा शूरसैनी भाषा विख्यात हैं। त्रेता युग के आरम्भ से द्वापर के अन्त तक सैनी वंश का शासन चलता रहा।
महाराजा शूरसैनी उत्तम शासन व्यवस्था के लिए भारत के प्राचीन इतिहास में सुप्रसिद्ध हैं। वे राज्य संचित आय कर को सुव्यवस्थित ढंग से व्यय करते थे। राज्य की आय को उन्होंने चार भागों में विभक्त कर रखा था। पहले भाग को सेना पर व्यय करते थे। दूसरे अंश को राजघराने का खर्च चलाते थे। तीसरे अंश से प्रजा के कल्याणकारी कार्य किये जाते थे। चौथे अंश से राज्य का आन्तरिक प्रशासन सुचारू रूप से चलाया जाता था। उनकी गुप्तचर व्यवस्था बड़ी सुदृढ़ थी। चोर, डाकू असामाजिक तत्व प्रजा को आंतकित नहीं कर सकते थे। किसी दूसरे राजा की राह हिम्मत नहीं हो सकती थी कि शूरसैनी राज्य की ओर आंख उठाकर देख सके। बाहरी सुरक्षा के लिए मजबूत सेना, अंदरूनी व्यवसथा के लिए कुशल सुरक्षकर्मी और राज्य की पूर्ण जानकारी रखने के लिए चुस्त गुप्तचर विभाग था। पूरे राज्य की छोटी से छोटी और बड़ी घटना की जानकारी राजा को होती थी। उनकी न्याय व्यवस्था बहुत पारदर्शी और निष्पक्ष थी। सम्राट शूरसैनी स्वयं को प्रजा का रक्षक और सेवक समझते थे। वह बड़े पराक्रमी, कर्तव्यपरायण, विनयशील, व्यवहार कुशल, धर्मपरायण और महारथी थे।
सम्राट शूरसैनी के शासनकाल में उनका राज्य आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और भौतिक रूप से सम्पन्न था। कृषि, व्यापार और शिल्प मुख्य व्यवसाय थें। राजा व प्रजा दोनों ही सुखी थे। शास्त्र ओर शस्त्र के प्रति राजा व प्रजा दोनों की आस्था थी। महाराजा शूर सैनी के शासन काल में संस्कृत, प्राकृत व शौर सैनी भाषांए प्रचलन में थी। प्राकृत व शौर सैनी भाषा आम नागारिकों की भाषा थी। शासन कार्य भी बहुधा शौर सैनी में ही होते थे। कालान्तर में पाली और हिन्दी प्रचलन में आई। अशोक कालीन शिलालेख अधिकतर शौर सैनी भाषा में मिलते हैं। हिंदी भाषा के विकास में प्राकृत व शोर सैनी भाषा का उल्लेख है इन भाषाओं का परिष्कृत रूप ही आज की मौजूदा हिन्दी व ब्रजभाषा है। जैन साहित्य का विपृल भण्डार शोर सैनी में ही उपलब्ध है। महान् सम्राट अशोक के समय में शौर सैनी सम्मानीय भाषा रही है। धर्म प्रचार के लिए देश-विदेश में गए अशोक के पुत्र महेन्द्र ओर पुत्री संघ मित्रा ने इसी भाषा मेंअपना कार्य किया था। हम यह निसंकोच कह सकते हैं कि शौर सैनी भाषा ने भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है जो सदा स्मरणीय रहेगा।
महाराजा शूर सैनी एक आदर्श राजा थे। उनका प्रत्येक कार्य नीति संगत व न्याय संगत होता है। देशी व विदशी इतिहासकारों ने सम्राटशूर सैनी की शासन व्यवसथा की बहुत प्रशंसा की है। राजा अपने प्रजाजनों का स्वयं ध्यान रखते थे। उनके सुख-दुःख में सम्मिलित होते थे। गुप्त रूप से राज्य की देखभाल करने स्वयं निकल पड़ते थे। चोर, डाकू, लुटेरे व व्यभिचारी उनके शासन में नहीं थे। शासन में ऐसी व्यवस्था थी कि हर हाथ को काम और पेट को रोटी मिले। उन्होंने कर्म की महत्ता का प्रतिपादित किया और सदैव कत्र्तव्यनिष्ठ रहे। यदि उनके शासन को राम-राज्य की संज्ञा दी जाए तो अतिश्योक्ति न होगी।
महाराजा शूरसैनी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। जीवन का कोई कोना उनसे अछूता नहीं रहा। शासन व्यवस्था के अलावा शस्त्रकला में तो निपुण थे, साथ ही मल्लयुद्ध में भी रूचि रखते थे। वे खिलाड़ियों का काफी सम्मान करते थे। उनका पारिवारिक जीवन भी अनुकरणी था। माता पिता व वृद्धजनों का चरण छुकर अभिवादन करना तत्कालीन परम्परा थी। वृद्धजनों का परामर्श लेकर ही कोई कार्य किया जाता था, ताकि कोई कार्य अनुचित न हो जाए। जिस प्रकार अन्य महान् आत्माओं ने समय-समय पर अवतरित होकर मानवता की सच्ची राह दिखाई उसी प्रकार उन्होंने कर्म की प्रधानता पर सदैव बल दिया। यही उनका जीवन दर्शन था और यही उनका संदेश था। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे आत्म चिन्तन व आध्यात्मिकता की ओर अधिक झुकने लगे थे।
महाराजा शूर सैनी के जीवन वृत से प्रभावित सैनी समाज क अनुयायी उन्हीं के पर चिन्हों पर चलकर सफलता पूर्वक जीवनयापान कर रहे हैं। उनके आचरणों की एक बहुत बड़ी देन जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है, वह ये है कि सैनी जाति के लोग प्रत्येक व्यवसाय में संलग्न हैं, चाहे वह क्षेत्र शिक्षा का हो या व्यापार का राजनीति का देश की रक्षा का या प्रशासनिक है अथवा खेलकूद। इस बस का श्रेय महाराजा शूर सैनी को जाता है वे अवतारी पुरूष थे। उनकी शासन व्यवस्था के सिद्धांत उस युग में तो लाभकारी थे ही, आज भी उनका अनुकरण किया जाए तो राष्ट्र और समाज की प्रगति को चार चाँद लग जाएं।
महापराक्रमी महाराजा शूरसैनी की प्रशासनिक व सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांत युग युगान्तर राष्ट्र समाज को आलोकित करते रहेंगे। उन महान् आत्मा को शत्-शत् नमन।