माली जाति का प्रमाणिक इतिहास

सन् 1891 में मारवाड़ (जोधपुर) राज्य ने जब जनगणना कराई तब विभिन्न जातियों के इतिहास पर शोधकार्य कराकर जो विस्तृत जानकारी प्रकाशित की गई, वह रिपोर्ट मरदुमशुमारी राज मारवाड़ सन् 1891 ईस्वी मेंपृष्ठ 80 से 93 तक छपी है। इस ग्रंथ का प्रथम प्रकाशन 1894 में हुआ था। यह ग्रंथ अप्राप्य हो गया था, अतः अब 1997 में श्री जगदीशसिंह गहलोत शोध संस्थान ने उसका पुनः मुद्रण कराकर समाजसेवियों के लिये उसे उपलब्ध करा दिया है। राजस्थान की जातियों का यह एक बड़ा प्रामाणिक विश्वकोष है। उसी में से माली जाति का यहाँ परिचय दिया जा रहा है।

इस तहसील से मारवाड़ की मरदुमशुमारी में मालियों की संख्या 60219 गिनी गई थी। उसमें मर्द 32204 औरतें 28015 थी। माली लोग काश्तकारी यानी खेती करने में ज्यादा होशियार हैं क्योंकि वे हर तरह का अनाज, साग-पात, फूलफल और पेड़, जो मारवाड़ में होते है, उनका लगाना और तैयार करना जानते हैं। इसी सब से इनका दूसरा नाम बागवान हैं। बागवानी काम मालियों या मुसलमान बागवानों के सिवाय और कोई नहीं जानता। माली बरखलाफ दूसरे करसों अर्थात् किसानों के अपनी जमीनें हरमौसम में हरीभरी रखते हैं। उनके खेतों में हमेशा पानी की नहरें बहा करती हैं और इसीलिये ये लोग सजल गाँवों में ज्यादा मिलते हैं। थली में इनकी संख्या बहुत कम है।

माली लोग अपनी पैदायश महादेवजी के मैल से बताते है। उनकी मान्यता है कि जब महादेवजी ने अपने रहने के लिए कैलासवन बनाया तो उसकी हिफाजत के लिय अपने मैल से एक पुतला बनाकर उस में जान डाल दी और उसका नाम ‘बनमाली’ रखा। फिर उसके दो थोक अर्थात् बनमाली और फूलमाली हो गए। जिन्होंने वन अर्थात् कुदरती जगलों की हिफाजत की और उनको तरक्की दी वे ‘बनमाली’ कहलाये और जिन्होंने अपनी अक्ल ओर कारीगरी से पड़ी हुई जमीनों में बाग और बगीचे लगाये और उमदा-उमदा फूलफल पैदा किये, उनकी संज्ञा फूलमाली हुई। पीछे से उनमें कुछ छत्री (क्षत्रिय) भी परशुराम के वक्त में मिल गये क्योंकि वे अपने पिता के वध का बैर लेने के लिए पृथ्वी को निछत्री (क्षत्रियविहीन) कर रहे थे। मुसलमानों के वक्त में इस कौम की और अधिक तरक्की हुई जबकि उनके डर से बहुत से राजपूत माली बनकर छुटे थे। उस वक्त कदीमी मालियों के लिए ‘महुरमाली’ का नाम प्रचलित हुआ अर्थात् पहिले के जो माली थे, वे महुर माली कहलाने लगे। महुर के मायने पहिले के हैं।

महुर माली जोधपुर में बहुत ही कम गिनती के हैं। वे कभी किसी समय में पूरब की तरफ से आये थे। बाकी सब उन लोगों की औलाद हैं जो राजपूतों से माली बने थे इनकी 12 जातियाँ हैं जिनके नाम कच्छवाहा, पड़िहार, सोलंकी, पंवार, गहलोत, सांखला, तंवर, चौहान, भाटी, राठोड़, देवड़ा, दहिया हैं।

माली समाज अपने विषय में इससे ज्यादा हाल नहीं जानते। ज्यादा जानने के लिये वे अपने भाटों का सहारा लेते है। जोधपुर में ब्रह्माभट्ट नानूराम इस कौम का होशियार भाट है। उसके पास मालियों का बहुत सा पुराना हाल लिख हुआ है मगर माली लोग अपनी बेइल्मी के कारण अपने सही और गलत भाटों की सही परख नहीं कर पाते।

मालियों के भाट उनका सम्बन्ध देवताओं से जोड़ते हैं और कहते हैं कि जब देवताओं और दैत्यों द्वारा समुद्र मथने से जहर पैदा हुआ था तो उसकी ज्वाला से लोगों का दम घुटने लगा। महादेवजी उसको पी गये, लेकिन उसे गले से नीचे नहीं उतारा। इस सबब से उनका गला बहुत जलने लगा था जिसकी ठंडक के लिये उन्होंने दूब भी बांधी और सांप को भी गले से लपेटा। लेकिन किसी से कुछ आराम न हुआ तब कुबेरजी के बेटे स्वर्ण ने अपने पिता के कहने से कमल के फूलों की माला बनाकर महादेवजी को पहिनाई। उससे वह जलन जाती रही। महादेवजी ने खुश होकर स्वर्ण से कहा-

यन्मे कण्ठे त्वया वीर, वनमाला निवेशिता।
वदिष्यन्ति जनास्त्वां वै, वनमाली ततःपरम्।।1।।
प्राप्तं वरं चेदिह मत्सकाशात्सुरासुरास्तत्र महावरेति।
विचुक्रुशुर्हर्षपरिप्लुतात्मनः प्रशस्य सर्व प्रददुर्वरान् शुभान्।।2।।
अनेन छिन्नास्तरवः परां वृद्धिमवाप्स्यथ।
स्वे स्वे काले प्रपुष्णपान्तु समाजनि फलानि च।।3।।

अर्थ:
हे वीर! तूने मेरे कंठ में बनमाला पहिनाई है। इस से लोक अब तुझ को बनमाल कहेंगे।।1।।
महादेवजी से स्वर्ण को जब वरदान मिला तो सब देवता और दैत्या बहुत प्रसन्न हुए।
उसे वे महावर (बड़ावर) पुकारने लगे। उन्होंने भी उसकी प्रशंसा करके उसे अच्छे-अच्छे वरदान दिये।।2।।
उन्होंने कहा कि जो वृक्ष इसके हाथ से कटेंगे, वे बहुत ही बढेंगे और अपने-अपने समय पर सब फुलेंगे और फलेंगे।।3।।