सैनिक क्षत्रियकुलों की खांपें
भाटी
श्री कृष्ण की 88 वीं पीढ़ी में राजा भाटी हुए। यदुवंशी श्रीकृष्ण के वंशजों में राजा बालावंध ( सन् 227-279 ) के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र ‘भाटी’ शालिवाहनपुर (लाहोर) का शासक बना। उसके वंशज भाटी कहलाये। राजा भाटी (सन् 279-295) के 7 भाई थे। संयुक्त रूप से उनके ही वंशजों को भाटी कहा गया। इस काल में कुशाणों व शकों की शक्ति क्षीण हो रही थी। अतः भाटियां ने तत्कालीन अस्थिरता का लाभ उठाकर अपने अधिकार क्षेत्र की सीमाओं का विस्तार किया। इनका राज्य पंजाब के उत्तरी पहाड़ी भाग व सिंध नदी के पश्चमी पहाड़ी क्षेत्रों पर हो गया। इस प्रकार आठों भाइयों की संतति ज्येष्ठ भाई राजा भाटी के नाम से भाटी कहलाई और इस कारण न केवल उनके राज्य का विस्तार ही हुआ बल्कि उनके वंश की भी वृद्धि हुई। इनके नाम से कई नगर व दुर्ग भी बनाये गये। यथा भटिण्डा, भटनेर, भाटी का डांभ, भाटीगढ़ आदि। भटनेर भारत के सुप्रसिद्ध किलों में से एक था। भाटियों से ही आगे चलकर अनेक जातियाँ बन गई जैसे राजपूत, माली, जाट, सुथार, नाई, कुम्हार, तेली, खत्री आदि। यहाँ तक कि सिक्खों व मुसलमानों में भी भाटी वंश के लोग मिलते हैं। इनके नख हैं – सींघडा, जैसलमेरा, अराइया, सवालख्या और जादम।
राठौड़
राठौड़ के लिए रठिक, रिष्टिक, राठवर, राठउड़, राष्टिक और राष्ट्रकूट आदि शब्दों का प्रयोग प्रचीन ग्रंथों में हुआ है। सम्राट् अशोक के गिरनार अभिलेख में ‘रिष्टिक’ शब्द मिलता है। अलटेकर इनकी उत्पत्ति संस्कृत शब्द ‘राष्ट्रिक’ से होना मानते हैं। राष्ट्रिक अशोक के समय (ई. पूर्व 273-236) में उत्तर-पश्चिमी भाग में छोटे-छोटे क्षेत्रों में सामन्तों के रूप में राज्य कर रहे थे।
राठौड़ लोग राम के पुत्र कुश के कुल में उत्पन्न सुमित्र, जो अयोध्या का अंतिम राजा था, के वंशज कहे जाते हैं। सुमित्र के दो वंशजों में कूर्म के वंशज कछवाहा कहलाये और दूसरे वंशज विश्वराज के वंशज राष्ट्रवर कहलाये। राठोड़ो के बहीभाटों के अनुसार इस राष्ट्रवर के नाम से इसके वंषज राष्ट्रवर या राठौड़ कहलाये। संस्कृत साहित्य में उनके लिए कही-कही राष्ट्रकूट या राष्ट्रकूटिया शब्द भी लिखे गये है। इनमें कमधज एक ख्याातिप्राप्त व्यक्ति हुआ। अतः राठौड़ कमधज भी कहलाए।
अयोध्या से हटने के बाद इन राठौड़ों ने कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया। सोलंकी त्रिलोचन पाल के वि.स. 1107 के ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि सोलंकियों के मूल पुरूष चालुक्य का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट राजास की कन्या से हुआ। राठौड़ों के बड़आ (बहीभाट) के अनुसार अयोध्या छूटने के बाद राठौड़ों ने कन्नासैज पर अधिकार कर लिया था। कन्नौज छूटने के बाद राठौड़ उसी क्षेत्र में कन्नौज के आसपास रहे और पुनः अवसर मिलने पर चन्द्रदेव ने कन्नौज को अधिकार में कर लिया। चन्द्रदेव का राजयकाल वि.स. 1146 से 1160 तक माना जाता है। चन्द्रदेव के पुत्र मदनपाल (1160-1170) ने ‘महाराजाधिराज परमेश्वर परम माहेश्वर’ की पदवी धारण की थी। वह एक स्वतंत्र नरेन्द्र था। उसके वंशज गोविन्द्रचन्द्र (1170-1211), कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था अतः चौहानऔर गहडवालों में शत्रुता हो गई। इसी कारण जब मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज पर हमला किया तब जयचन्द्र ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया। पृथ्वीराज की पराजय के बाद वि.स. 1251 (ई. सन् 1194) में मुहम्मद ने कन्नौज पर आक्रमण किया। उस समय कुतबुदीन के नेतृत्व की सेना से लड़ता हुआ जयचन्द्र चन्द्रावर के युद्धस्थल में मारा गया। जयचन्द्र की मृत्यु के बाद गहड़वाल राज्य समाप्त हो गया। जयचन्द्र के पुत्र बरदाई सेन और उसके पुत्र सेतराम हुए। सेतराम का पुत्र सीहा कन्नौज क्षेत्र को छोड़कर मारवाड़ के पाली कस्बे में आ कर रहा। पाली के पास वि.सं. 1330 में मुसलमानों से लड़ता हुआ वह मारा गया। सीहा के पुत्र आसथान नपे पहले खेड़ (जिला बाड़मेर) पर अधिकार कर लिया। उसके वंशज जोधा ने सन् 1459 में जोधपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाई और तब से राठौड़ों का मारवाड़ सन् 1949 (जोधपुर राज्य) पर अधिकार तक रहा।
कन्नौज के गोविन्दचन्द्र के समय राठौड़ अपने को गाहड़वाल कहने लगे। ऐसा प्रतीत होता है कि कन्नौज का पुराना नाम गाधीपुर था। गोविन्दचन्द्र गाधीपुर निवासी होने के कारण गाहड़वाल भी कहलाया था। वास्तव में वह राठौड़ ही था। गाहड़वाल राठौड़ों की ही एक खांप मानी जा सकती है। राठौड़ सूर्यवंशी हैं। कन्नौज से आने के कारण ये कनवजिया राठौड़ भी कहलाते हैं।