सैनिक क्षत्रियकुलों की खांपें

दहिया

‘पृथ्वीराज रासो’ में इन्हें दधिष्ट लिख गया है। सिकन्दर के समय (ई.पूर्व 327) पंजाब में समलज नदी के किनारे बसे हुए ‘द्राहिक’ ही दहिया कहलाते हैं। इस गणराज्य के लोग मालवों, अर्जुनायननों ओर यौधेयों की भाँति पंजाब से दक्षिण में चले गए। दहियों का पुराना वास नासिक त्रिबक (महाराष्ट्र) के पास गोदावरी नदी के निकट थालनेरगढ़ था। बाद में ये लोग नागौर जिला के परबतसर, मारोठ तथा जालोर जिला में जा कर बस गये। इनके वहाँ किणसरिया शिलालेख वि.सं. 1056 व 1272 के मिले है। जालोर का किला दहियों ने बनवाया था। दहियों से जालोर का यह किला वहां पर नाडोल परमारों ने छीना था। सांचैर पर भी दहियों का राज्य था लेकिन बाद में वहां पर नाडोल के चैहानों का कब्जा हो गया।

सैनी

माली जाति को सैनी जाति भी कहा जाता है। इतिहासकार जगदीशसिंह गहलोत के माली जाति के लोग खेती में खाद का ज्यादा प्रयोग करने के कारण उत्तर भारत में ‘रसायनी’ कहलाने लगे और इसी कारण यह जाति ‘रसायणी’ या सैनी नाम से प्रसिद्ध हुई। उनके अनुसार ‘माली’ व ‘सैनी’ दोनों एक ही जाति है।

सैनी जाति के एक अन्य इतिहासकार बलदेवसिंह आजाद ने अपनी पुस्तक ‘सैनी क्षत्रिय समाज का इतिहास’ में सैनी जाति की उत्पत्ति और मूल स्थान के विषय में विसतार से प्रकाश (पृ. 13 से 27) डाला है। उनके अनुसार यादव वंश के वृष्णि के कनिष्क पुत्र अनामित्र के पुत्र सिनी के वंशज युगधरू (इसका वंशवृक्ष अलग से दिया गया है) ने सरस्वती नदी के किनारे अपना राज्य स्थापित किया था (महाभारत पर्व 67,184-253) व पूर्व 17 (1,8,91) जो संभवतः संघ गणराज्य था। यह राज्य शूरपुरा, मथुरा व मार्तिक वेट के शूरसैनी राज्यों से भिन्न सैनी राज्य था। ये सब चन्द्रवंशी व यदुवंशी थे। यह भी संभव है कि समस्त राज्यों का एक संघ रहा हो जो गूरसैनी (यमुना के किनारे शूर सैनी प्रदेश) कहलाता था। ऋग्वेद में सरस्वती नदी का स्थान यमुना व सतलज के बीच दिया गया है।

बलदेवसिंह आजाद ने आगे (पृ. 27 पर) लिखा है कि सैनी का अर्थ श्रेणी होता है और श्रेणी गणराज्य के सैनियों का यह नाम मध्यकाल में झंझावत में सैनी (अपभ्रंश) हो गया होगा। ऐसी दशा में सैनी जाति श्रेणी गाथा की प्रतिनिधि ठहरती है व उसका क्षत्रिय आर्यवर्ण होना भी सिद्ध होता है। आज भी पंजाब व हरियाणा व दिल्ली क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में सैनी बसते हैं क्योंकि इसी क्षेत्र में सतलज व सरस्वती के मध्य श्रेणी राज्य स्थित था। प्रसिद्ध इतिहारकार परजीटर ने अपनी पुस्तक ‘एशिया इण्डिया हिस्टोरिकल टेडीसन्स (सन् 1922 प्रकाशन, पृ. 105-106) में पुराणों के आधार पर वृष्णि वंश का वृक्ष इस प्रकार दिया है-

  • यदुवंश का वृष्णि
  • सुमित्रा अधजित देवमेघ अनामित्र शूर सैनी
  • वासुदेव सात्यक बलराम कृष्ण युयुधन (सात्यकी)

इतिहासकार परजीटर ने स्पष्ट लिखा है कि वृष्णि के कनिष्ठा पुत्र अनामित्र के पुत्र व उसके वंशज सैनी कहलाये। इतिहासकार ए.डी. पुसल्कर ने भी ‘हिस्ट्री’ एण्ड कल्चर ऑफ दि इण्डियन पीपल्स (भाग 1, पृ. 298 व 318) में लिखा है कि वृष्ण के सबसे छोटे पुत्र अनामित्र के वंशज उसके पुत्र सिनि के कारण सैन्य अथवा सैनी कहलाये। महाभारत के मोषल पर्व अध्याय 16 में भी लिखा हैं –

अद्यप्रभृति सर्वेषु वृष्णयन्धककुलिष्विह।
सुरासवो न कक्र्राव्यो सर्वेनास्वसिभिः।।
महाभारत के मोषल पर्व अध्याय 3 में भी लिखा हैं –
वतेडन्धकाचश्र भोजचश्र शैनेय या वृष्णयस्तथा।
जन्नुरयोडत्य-मकृन्दे मुषले काल चैदिताः।।

आज भी विदेशों में राजधर्म के रूप में प्रचलित है। ‘महावंश’ पर लिखित टीका में चन्द्रगुप्त को मौर्य नगर का राजकुमार बताया गया था। वहाँ का राजा क्षत्रिय शाक्यों की एक शाखा में से था। मोर पक्षियों की अधिकता से हिमालय के निकट का यह राज्य मौर्य कहलाया। महापरिनिव्वानसुत में लिखा है कि महात्मा बुद्ध के महाप्रयाण के समय (ई.पूर्व 477) पिप्पलीवन के मौर्यों ने कुशीनगर के मल्लों के पास संदेश भेजा था कि आप हमारी भाँति ही क्षत्रिय हैं। अतः हमें भी भगवान् बुद्ध के शरीर के अवशेष प्राप्त करने का अधिकार है। बुद्ध के समय में जो 10 स्वतंत्र राज्य थे, उनमें से एक राज्य पिप्पलीवनत के मौर्य क्षत्रियों का भी था। ‘महाबोधिवंश’ में लिखा है कि कुमार चन्द्रगुप्त वारिन्द्रकुल का राजवंशीय था। यह राजवंश शाक्यपुत्रों द्वारा निर्मित मोरियनगर का था। ‘दित्यावदान’ में चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार और पौत्र अशोक को स्पष्टतः क्षत्रिय कहा गया है। जैन ग्रन्थ ‘परिशिष्टपर्वन’ के अनुसार चन्द्रगुप्त मयूरपोषकों के सरदार का पुत्र था। यही विचार जैन ग्रन्थ ‘आवश्यक सूत्र’ की हरिभद्र टीका का भी है। ‘कुमारपाल प्रबन्ध’ में चितौड़ के र्मौर्यवंशी राजा चित्रांगद को रघुवंशी बतलाया गया है।

बौद्ध और जैन साहित्य के साक्ष्य मौर्यों को मोरों से सम्बन्धित सिद्ध करते हैं। यो भी मयूर मौर्यों का वश चिन्ह (डाइनेस्टिक एम्बल्म) था। मौर्यों के पंच मार्क सिक्कों पर मेरू पर्वत पर मोर अंकित हुआ है। स्पष्ट है कि मौर्य क्षत्रिय है।