सुश्री लता कच्छवाह
संपूर्ण जीवन को सेवा कार्यो में लगा 66,000 महिलाओं को आजिविका प्रदान करने की मिसाल
80 के दशक के उत्तरार्द्ध में एक सफल और आत्मसशक्त महिलाओं के रूप में काम करना सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्यों में से एक था। सुश्री लता कच्छवाहा ऐसी आत्मसशक्त महिलाओं में से एक है, जिन्होने समाज में महिलाओं की स्थिति को विकसित करने के लिए इस क्षेत्र में असाधारण काम किया है। बाड़मेर सीमा क्षैत्र में विभिन्न मुददों पर महिलाओं की आजिविका से जोड़ने हेतु 66000 महिलाओं को जोड़ने का कार्य किया ।
सुश्री लता जोधपुर के प्रसिद्ध रामलाल कच्छवाहा के परिवार से है। इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री हुकम सिंह कच्छवाहा है। आर्टस में मास्टर्स डिग्री पूरा करने के बाद सुश्री लता ने गरीब एवं ज़रूरतमंद परिवारों के उत्थान के लिए कार्य करने का फैसला लिया।
घर की इकलौती लाडली बेटी ने जब ठान ली तो घर की शान शौकत, आराम को छोड़ कर बाड़मेर के रेतीले धोरों में अपना जीवन लगा दिया और, इन रेत के धोरों में जहां पानी भी मुश्किल था एवं बाड़मेर सीमा क्षैत्र चैहटन के गांवों को चुना जहां सिर्फ एक सड़क थी जहां से गांवों में पहुंचने हेतु एक किलोमीटर से 15 किलोमीटर तक पैदल सफर तय किया। कभी उंटों पर कभी ग्रामीण बसों में यात्रा की और लोगों के घर घर तक पंहुची। गरीबों की रसोई तक पंहुची तो लोगों ने अपना माना, अपना दुख दर्द भी बांटा जहां बाहरी लोगों पर अविश्वास था वहां विश्वास की एक मजबूती कायम की।
जीवन के अपने कर्म की शुरूआत की शिक्षा के बाद जोधपुर के कागा में हरिजन बच्चों को शिक्षा से जोड़ने व उन्हें पढाने के कार्य से की और उसमें आनन्द था। एक वर्ष के पश्चात ही उनकी माता का देहान्त हो गया तो पुरी दुनिया सुनी लगने लगी। पुरा परिवार व सब कुछ था लेकिन माँ की ममता के बिना इतना सब होते हुए भी सब सूना था।
उसी दौरान भाई महेन्द्रसिंह द्वारा मन बहलाने एवं बदलाव के लिए बाड़मेर चलने का आग्रह किया और आप भाई के आग्रह पर बाड़मेर आ गई और बाड़मेर में आपकी मुलाकात समाज सेवी पदमश्री मगराज जी जैन साहब से हुई और उनके कार्यशैली एवं कार्य की रीति नीति ने उन्हें प्रभावित किया और उनके साथ जुड़कर जीवन का एक लक्ष्य सामने रख कर महिलाओं को आगे लाने का निश्चय किया और तब से कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
लोगों के जीवन की कठिनाइयों को समझा, जाना, बदलाव का जिम्मा उठाया, रोजगार के साधन नहीं थे, निरंतर पड़ने वाले अकालों में मनुष्य एवं पशुओं के हालात खराब थे। 50 प्रतिशत लोग रोजगार की तलाश में पलायन कर जाते थे और गांवों में केवल बूढे, बच्चे एवं महिलाएं ही रह जाते थे।
महिलाओं का पूरा समय पानी लाने में ही लगता था। महिलाएं 4 से 7 किलोमीटर दूर से पानी लाती थी, पूरा श्रम पानी लाने में लगता था, आयवर्धन हेतु कार्य करने का समय नहीं रहता था।
बाड़मेर सीमा क्षेत्र में भारत पाक युद्ध के पश्चात् 1965 व 1971 की लड़ाई के बाद पाक विस्थापित कई जातियों के परिवार सीमा पर आकर बसे। आजिविका का साधन खेती एवं पशुपालन ही थे। खेती वर्षा आधारित थी। पशुओं के हालात खराब थे ऐसे में मेघवाल जाति की महिलाओं के पास जो पारम्परिक हुनर था, घर की महिलाएं अपनी बेटीयों के लिए दहेज हेतु कांचली, अंगरखी, तकीया, रूमाल या दामाद की बुकानी, बटुआ आदि सुंदर वस्त्र, चादर, रालियां, घर सजाने के लिए तोरण, उंटों एवं घोड़ों को सजाने के लिए तन आदि बनाती थी। यह इतने सुंदर रंगों के धागों का व कांच का उपयोग करके सुंदर कारीगरी से बनाती की देखते ही मन उल्लास से भर जाता था क्योंकि बनती अपनों के लिए जो थी तो उसमें अपनत्व की भावना एवं दिल से लगाव व जुड़ाव होता था और धीरे धीरे ये बाजार में व्यवसाय के रूप में बनने लगी, मांग बढी लेकिन दाम कम मिलने पर काम की क्वालिटी (गुणवत्ता) भी गिर गई। व्यापारी और महिला कारीगरों के बीच बहुत बिचैलिए हो गये थे, इस कारण महिलाओं को दिन भर में मात्र 3 रूपये ही मजदूरी मिलती थी।
महिलाओं के कशीदाकारी एवं हस्तशिल्प के कार्य को आगे बढाने के लिए 1986 में नेहरू युवा केन्द्र से जुड़ कर शुरूआत की एवं परम्परागत तरीके से किये जाने वाले कार्य में व्यावयायिक रूप से क्या बदलाव करने की जरूरत है एवं उसमें नया क्या कर सकते हैं इन तमाम बिंदुओं को लेकर चिंतन मनन करने के बाद जिस समय बाड़मेर के चोहटन क्षैत्र में कार्य करना बहुत ही चुनौतियों भरा माना जाता था उस समय आपने चोहटन की महिलाओं के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर कार्य कर उनको विकास की धारा में जोड़ने के लिए अपनी कर्मभूमि बनाया ।
बाड़मेर जिले के ग्रामीण क्षेत्र में युवाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करने हेतु सरकारी एक योजना ग्रामीण युवाओं के लिए थी जिसमें पूरे जिले के लिए कार्य था। साथ ही एक योजना शहरी युवाओं के लिए भी थी जिसमें शहरी युवाओं को रोजगार से जोड़ना था और बाड़मेर की 8 पंचायत समितियों में युवा केन्द्रों में जैन साहब द्वारा इस परियोजना का कार्य संचालित हो रहा था। इसके तहत जिले की 1700 से अधिक ग्रामीण और 1600 शहरी महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया। नेहरू युवा केन्द्र के सामाजिक कार्यों के साथ 1986 में आपने काम शुरू किया। उन सभी कार्यो को पूरी जिम्मेदारी के साथ किया।
बाड़मेर जो देखने में रेतीले धोरो का आर्कषण तो था ही, जहां लोगो को पीने का पानी भी पूर्णतया नसीब नही था। अप्रेल से जून तक का 48 से 50 डिग्री का तापमान और भंयकर आंधीयाँ, अकालो की मार जिन्हें लोग किस तरह झेलते थे जो कभी किताबों में पढा था उसकी वास्तविक भयंकरता ने बहुत नजदीक से जानने व समझने का अवसर मिला।
युवाओं को प्रशिक्षण देना व उनको रोजगार से जोड़ने के साथ-साथ जो उत्पादन होता था उसको बाजार तक पहुँचाना ताकि उसकी डिमांड (मांग) को समझा जा सके इस हेतु नेहरू युवा केन्द्र के माध्यम से देश के हर कोने में दस्तकारी सामग्री की ब्रिकी हेतु मेलों में जाना होता था व उस सामान को बेचने, उद्योग मेले, राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय मेलो में जो भारत मे लगते थे उनमें भाग लेते थे दिल्ली, मुम्बई, जयपुर, बैंगलोर, चण्डीगढ़, मद्रास इत्यादि स्थानों पर भारत सरकार द्वारा आयोजित किए जाते थे विशेष कर कर्पाट द्वारा ग्राम श्री मेले में आयोजित किये जाते थे।
साथ ही आदरणीय श्री मगराज जी जैन को पदम् श्री मिलने के बाद उनके समन्वय और अधिक गहनता से कार्य करने का अवसर मिला। “श्योर’’ संस्था की शुरूआत अर्थात स्थापना सन् 1990 में हुई और आप भी इसमें शामिल हो गई। आपने 1990 में श्योर संस्था से जुड़कर कशीदाकारी एवं हस्तशिल्प के कार्य को गति देने की बड़े स्तर पर एवं जुनुन बनाकर इस कार्य की शुरूआत कर दी, तब से बाड़मेर जिले की हजारों महिलाओं को लााभान्वित करने के लिए सैकड़ों प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण कार्यक्रम, प्रदर्शन, बीज वितरण, चारा प्रबंधन, वित्तीय साक्षरता, बेहतर कृषि पद्धतियों, जैव-फर्म, वाडी तकनीक, वर्मी कम्पोस्ट, औषधीय पौधे, किचन गार्डनिंग और जैविक खेती के उपयोग को और अधिक प्रसार के लिए महिला प्रौद्योगिकी केन्द्र की स्थापना की गई।
इन दस्तकार महिलाओं को संगठित किया गया। 1994 में स्वयं सहायता समूह बना कर इनको साथ मिलाकर ग्रुप में कार्य करने हेतु प्रेरित किया गया। ग्रामीण महिलाओं पर परिवार के लोगों का अंकुश रहता था कि ये घर से बाहर नहीं निकलें, ऐसे में आपने अथक प्रयास किये एवं आपको जो कार्य करने को दिया गया वह किया और पूरा विश्वास दिलाया। इस तरह 10 में 100 और 1000 में हजारों महिलाएं जुड़ी जो कभी घर की दीवार से बाहर नहीं गई थी, जिन्होंने कभी ट्रेन नहीं देखी वो दिल्ली, बम्बई और कई बड़े शहरों में अपना सामान बेचने गई और समझा कि लोग क्या पहनते है, क्या सजाते है और उनको कैसे कपड़े में कैसा रंग किस प्रकार का काम चाहिए। इसी दौरान सन् 1994 में दस्तकारों के प्रशिक्षण, डिजाइनिंग व मार्केटिंग के लिए बाड़मेर से 75 किलामीटर दूर जहां आसपास के गावों में दस्तकारों की अधिकता थी उनके बीच में क्राफ्ट डवलपमेंट सेंटर की स्थापना की जो आज तक उसी रफ्तार से कार्य कर रहा है। इसके साथ ही स्वयं सुश्री लता कच्छवाहा ने हस्तशिल्प को बढ़ावा देने हेतु विभिन्न देश-विदेशों की यात्राएं की जैसे अमेरिका, सिंगापुर, थाईलैंड, बांगलादेश, श्रीलंका आदि।